कांपते हाथों में अब न सामर्थ बचा है,
फिर भी जकड़े हैं वात्सल्य का पक्का धागा।
आँखों की रौशनी धुंधली हो चली,
पर बेटे - बेटी के लौटने की राह देखी जा रही है अभी।
शब्द कम हो गए हैं, आहें - करहें बढ़ गईं है ,
लेकिन फिर भी हमारी फिक्र में निकली है एक धीमी आवाज।
अब दर्द की चुप्पी उनके चारों ओर छा गई है,
पर हमारे लिए आज भी मुस्कुराते खड़े है।
न कह पाए अपना खालीपन,
न जता पाए कोई अपनापन।
बूढ़ी आँखों में तैरते हैं अधूरे से सपने,
जो बेटे-बेटियों की व्यस्तता में खो गए है कहीं।
माँ-बाप का बुढ़ापा, बस एक मौन धारण करती कथा है,
जिसे समझना है, सुनना है... निभाना है।
लेकिन शायद हम समझ नही पा रहें हैं,
आखिर क्यों.......???
क्या इतनी व्यस्तता है.......???
Tripti Singh.....