"एक सपना, सब सपनों के लिए"
सपने बहुत हैं मेरे,
जो पूरे करना चाहता हूँ।
भले ही इंतज़ार हो,
पर उन्हें पूरा ज़रूर करूँगा।
पर... बस अब एक, घर के
सपने में खोया हूँ।
जब वह पूरा होगा,
तब पूरे करूँगा अपने सारे सपने।
अब कम लिखता हूँ,
फिर लिखूँगा जी भर के।
अब कम घूमता हूँ,
फिर घूमूँगा जी भर के।
अब कम बोलता-सुनता हूँ,
फिर कहूँगा-सुनूँगा जी भर के।
पर... बस अब एक, घर के
सपने में खोया हूँ।
लिखूँगा सारे अल्फ़ाज़
दिल के पन्नों पर।
लिखूँगा सारी कहानियाँ
अपने मन की बातों की।
लिखूँगा कविताएँ
अपनी तन्हा ज़िंदगी की,
हार-जीत और हर पल की।
पर... बस अब एक, घर के
सपने में खोया हूँ।
करूँगा सारे काम,
जो दिल के कोने में छिपे हैं।
सुनूँगा सारी बातें,
जो सुननी बाकी हैं।
कहूँगा सारे दिल के अल्फ़ाज़,
जो कहे नहीं गए।
पर... बस अब एक, घर के
सपने में खोया हूँ।
एक दिन जाऊँगा पहाड़ों पे,
उसकी कठोरता को नंगे पाँवों से
एहसास करूँगा,
उससे बहती नदियों में
अपने सारे ग़म बहा दूँगा,
इन झरनों को
अपने दिल में ठहराव दे दूँगा,
इसके शिखर से पूरे जग को
अपनी आँखों में संजो लूँगा,
इसकी संकरी घाटियों में
खो जाऊँगा कहीं,
इसके कटक पर जाकर
मन खोल चिल्लाऊँगा,
सारे ग़मों को सुनाकर
बादलों में छेद कर दूँगा।
हाँ, यह सब करूँगा एक दिन,
पर... बस अब एक, घर के
सपने में खोया हूँ।
बनाऊँगा वह आशियाना,
सुंदरवन के हृदय में,
जहाँ हो बस फुलों की खुशबू,
पक्षियों की मधुर आवाजें,
जहाँ हों ऊँचे पेड़।
जंगल के उन मनोरम नज़ारों में
खो जाऊँगा कहीं।
नरम घास के मैदानों को
नापूँगा नंगे पाँवों से।
हाँ, यह सब करूँगा एक दिन,
पर... बस अब एक, घर के
सपने में खोया हूँ।
by-Dharu Dhumbara