मैं सोचता था..!
मैं सोचता था भलाई लौटेगी भलाई बनकर,
अगर मैं चमकूँ तो आएँगे साथी बस अपनेपन से जुड़कर।
पर जीवन न्याय का खेल नहीं,
जैसे प्रकृति कभी सम नहीं।
रोशनी बुलाती है राहगीर को भी, भेड़िए को भी,
कोमल दिलों को भी, भूखी दरिंदगी को भी।
तभी सीखा मैंने पहचान का हुनर,
साए जब घेरें तो लौ को ढक लेना,
और जब वक्त पुकारे, तो धधक कर जल जाना,
कभी अंधेरों में ठहर जाना।
फिर भी मैंने चमकना चुना—
क्योंकि रोशनी ही मेरी पहचान है।
चाहे डगमगाए, चाहे छिप जाए,
यह लौ मेरी है, यह प्रकाश मेरा है।
DB-ARYMOULIK