तख़्त-ए-जुनूँ के सिपाही
रौशनी उठी दुआ थी किसी इकरार के लिए।
ज़ख़्म-ए-वक़्त जाना था किरदार के लिए।
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सर-ए-सफ़र थी हिज्र की तारीखी यु़ मंज़िलें,
सिलते रहे तक़दीर की सुई से, दीदार के लिए।
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क़ल्ब-ए-ख़राब उम्मीद बरक्स जम न सका,
हर सांस थी सद्र-ए-जुनूँ इनकार के लिए।
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कूचा-ए-फ़ना में वजूद रक़्स करता रहा ताउम्र,
अनजानी चीख़ किसी सब्र के इज़हार के लिए।
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महरूम-ए-वक़्त थे मगर दिल में शुहूद बाकी,
जज्बा हर आँच में जलते रहे इख़लास के लिए।
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सुल्तान-ए-दर्द ने जब तक़दीर लिख डाली,
हमने कलम कबकी उठाई वकाऱ के लिए।
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रौज़-ए-जज़ा की दहलीज़ पर भी साया न था,
बेवजह क़दम रखा गया इस्तिग़फ़ार के लिए।
ख़ुर्शीद-ए-दिल ने बुझा दी हसरतों की लौ,
अब रौशनी बाकी है बस इज़्तरार के लिए।
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रंग-ए-वजूद में ख़ामोशी की तहज़ीब बसी,
खामोष लफ़्ज़ था मानो इक ऐतबार के लिए।
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मर्ज़-ए-हयात का इलाज तर्क-ए-हवा में मिला,
हर दर्द था बस तस्लीम-ए-राजदार के लिए।
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तख़्त-ए-जुनूँ पे बैठा वो दीवाना मुसाफ़िर,
क़िस्मत से लड़ पड़ा इख़्तियार के लिए।
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रूह-ए-वक़्त ने कहा, “अब सफ़र मुकम्मल है”,
बहरहाल दिल ठहर न सका इज़हार के लिए।
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मुतलक़-सुकून की चाह में मिट गए सब नक़्श,
हुकूमती मतबल रहा नाम एक अशआर के लिए।
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लौटा न कोई भी उस पार से अब तक मगर,
रूक रूक जान गई थी किसी अस्रार के लिए।
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फ़ितरत ने हुक्म दिया तल्ख कर इस आलम को,
शख़्स जी उठा रूठे तेवर इन्क़िसार के लिए।
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और चाँद ने देखा कि फ़लक भी ख़ामोश है,
तारों ने रौशनी सजादीह इस्तिक़बाल के लिए।
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गल” ने लिखा,मैं शहीद-ए-दिलोजान के लिए,
दर्द क़ुबूल है दे ठोकर निजामी बदकार के लिए।
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When tables of governance and toilets of arrogance emit the same stench, every thought becomes foul, every word corrupt, and every action leaves behind the spoor of ignorance; the world itself becomes a visible hell
जुगल किशोर शर्मा, बीकानेर राजस्थान दिनांक 02नवम्बर, 2025