वो लाइब्रेरी और मेरी यादें
✍️ लेखक – विजय शर्मा एरी
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प्रस्तावना
कहा जाता है कि किताबें मनुष्य की सबसे सच्ची साथी होती हैं। वह धोखा नहीं देतीं, वह शिकायत नहीं करतीं और समय के साथ–साथ और गहरी मित्र बन जाती हैं। मेरी ज़िंदगी में भी एक ऐसी जगह रही है, जिसने मुझे किताबों की दुनिया से, ज्ञान की रोशनी से और अपनी पहचान से मिलवाया। वह जगह है—शहर की सार्वजनिक लाइब्रेरी।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है मानो मेरी आधी ज़िंदगी उन्हीं लकड़ी की अलमारियों के बीच बीती हो, जिनमें हज़ारों किताबें सजी रहती थीं। वही लाइब्रेरी मेरी यादों की लाइब्रेरी भी बन चुकी है, जहाँ हर शेल्फ पर मेरी ज़िंदगी की कोई न कोई याद रखी हुई है।
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बचपन की पहली सीढ़ी
मैं उस वक़्त सातवीं कक्षा में था जब पहली बार अपने दोस्त की ज़िद पर लाइब्रेरी गया। सामने पुरानी इमारत थी, लाल ईंटों से बनी, बड़े–बड़े दरवाज़े और खिड़कियों पर लोहे की जाली। भीतर जाते ही किताबों की सोंधी खुशबू ने मुझे घेर लिया।
लाइब्रेरियन अंकल ने हमारी तरफ़ देखा और मुस्कराते हुए कहा –
“बेटा, किताबें अच्छे दोस्त हैं, इन्हें संभाल कर रखना।”
मैंने पहली बार लाइब्रेरी कार्ड बनवाया। उस दिन मैं एक छोटी–सी किताब घर ले गया – “पंचतंत्र की कहानियाँ”। यक़ीन मानिए, उस किताब ने मुझे इतना बाँध लिया कि रातभर मैं उसमें डूबा रहा। यही मेरी किताबों के साथ पहली मुलाक़ात थी।
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किशोरावस्था की पगडंडी
धीरे–धीरे स्कूल से छूटकर मेरा पहला ठिकाना वही लाइब्रेरी बन गई। माँ डांटतीं –
“दिन–रात वही किताबें, ज़रा खेलों में भी ध्यान दे।”
लेकिन मुझे तो खेल के मैदान से ज़्यादा मज़ा किताबों की दुनिया में आता था। वहाँ न केवल पाठ्यपुस्तकें थीं बल्कि उपन्यास, कविताएँ, जीवनियाँ, और अख़बार–पत्रिकाएँ भी।
यहीं पहली बार मैंने प्रेमचंद का “गोदान” पढ़ा। हृदय भीतर तक हिल गया। समझ आया कि किताबें केवल कहानियाँ नहीं, बल्कि समाज का आईना होती हैं।
फिर महादेवी वर्मा की कविताएँ पढ़ीं, जिनसे जीवन में संवेदनाओं की गहराई मिली।
लाइब्रेरी की लकड़ी की मेज़ पर बैठकर अक्सर मैं घंटों लिखने की कोशिश करता। कभी डायरी में कविताएँ, कभी कहानियाँ। धीरे–धीरे यह लाइब्रेरी मेरी रचनात्मकता का जन्मस्थान बन गई।
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दोस्ती की खुशबू
लाइब्रेरी ने मुझे न केवल किताबों से, बल्कि लोगों से भी जोड़ा। वहाँ कुछ साथी मिले, जिनके साथ किताबों पर चर्चा करना एक नया अनुभव था।
एक बार की बात है, मैं “भारत का स्वतंत्रता संग्राम” किताब पढ़ रहा था। पास में बैठा लड़का बोला –
“क्या आप भी इतिहास में रुचि रखते हैं? मैं भी नेहरू और गांधी पर किताबें ढूँढ रहा हूँ।”
बस वहीं से दोस्ती की शुरुआत हुई। उसका नाम अनिल था। हम दोनों हर हफ़्ते नई किताबें ढूँढते, पढ़ते और एक–दूसरे से बहस करते।
अनिल की दोस्ती ने मेरी लाइब्रेरी की यात्रा को और रंगीन बना दिया।
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प्रेम की पहली गूँज
यादों की इस लाइब्रेरी में एक कोना प्रेम से भी जुड़ा है।
कॉलेज में जब पहुँचा, तो लाइब्रेरी मेरी आदत बन चुकी थी। वहाँ एक लड़की रोज़ आती थी – बड़ी शांत, किताबों में डूबी। उसका नाम था नैना।
पहली बार मैंने हिम्मत करके उससे कहा –
“क्या आप ‘गुलजार’ की कविताओं की किताब पढ़ रही हैं? मुझे भी कविता बहुत पसंद है।”
वह मुस्कुराई –
“हाँ, ये शब्द दिल में उतर जाते हैं।”
उस दिन से हम अक्सर लाइब्रेरी में साथ–साथ बैठकर किताबें पढ़ते। कभी–कभी अपनी पसंदीदा पंक्तियाँ एक–दूसरे को सुनाते।
धीरे–धीरे हमारी बातचीत दोस्ती से आगे बढ़ने लगी।
एक दिन बाहर हल्की–हल्की बारिश हो रही थी, और लाइब्रेरी की खिड़की से बूंदें भीतर झाँक रही थीं। नैना ने धीरे से कहा –
“किताबों की दुनिया भी अजीब है, यहाँ लोग अनजाने मिलते हैं और यादों में हमेशा के लिए बस जाते हैं।”
वह दिन मेरी यादों की लाइब्रेरी का सबसे ख़ास पन्ना बन गया।
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संघर्ष का दौर
ज़िंदगी हमेशा एक जैसी नहीं रहती। कॉलेज ख़त्म होने के बाद नौकरी की तलाश शुरू हुई।
अक्सर रिज़ल्ट निराश करते थे। मैं टूटने लगता, लेकिन लाइब्रेरी ही थी जहाँ मुझे संबल मिलता।
वहाँ जाकर मैं स्वामी विवेकानंद की किताबें पढ़ता –
“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।”
इन पंक्तियों ने मुझे हार मानने से बचा लिया।
लाइब्रेरी की दीवारें मेरी चुप्पियों की साक्षी थीं, मेरी दबी हुई आहों और उम्मीदों की गवाह थीं।
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सफलता का स्वाद
कई सालों की मेहनत के बाद आखिर मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई। जिस दिन नियुक्ति पत्र हाथ में आया, मैं सीधे लाइब्रेरी पहुँचा।
पुरानी कुर्सी पर बैठकर मैंने आँखें बंद कीं और सोचा –
“अगर यह लाइब्रेरी न होती तो शायद मैं यहाँ तक कभी न पहुँच पाता।”
उस दिन मैंने लाइब्रेरियन अंकल को जाकर धन्यवाद कहा। उनकी आँखों में चमक थी –
“बेटा, मुझे पता था, किताबों की ताक़त तुम्हें मंज़िल तक ज़रूर ले जाएगी।”
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बिछड़ने की कसक
लेकिन ज़िंदगी फिर एक मोड़ पर आई। नैना, जिससे मेरी दोस्ती और चाहत गहरी हो चुकी थी, उसे विदेश में स्कॉलरशिप मिल गई।
विदा लेते समय उसने लाइब्रेरी में ही कहा –
“याद रखना, जब भी तुम किताबों की इस लाइब्रेरी में आओगे, मैं तुम्हारे आस–पास रहूँगी।”
उसकी बातें आज भी उन किताबों के पन्नों में गूँजती हैं।
हमारे रास्ते अलग हो गए, लेकिन लाइब्रेरी ने मुझे उसका एहसास हमेशा दिया।
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आज की लाइब्रेरी – यादों का खज़ाना
अब जब मैं उम्र के इस पड़ाव पर हूँ, तो समझता हूँ कि मेरी असली लाइब्रेरी केवल किताबों से नहीं बनी, बल्कि उन यादों से भी बनी है जो हर किताब, हर मेज़, हर खिड़की से जुड़ी हैं।
बचपन की मासूमियत
किशोरावस्था का उत्साह
दोस्ती का जोश
प्रेम की गहराई
संघर्ष की पीड़ा
सफलता की मिठास
सब कुछ इस लाइब्रेरी की दीवारों में समाया हुआ है।
आज भी जब मैं वहाँ जाता हूँ तो लगता है जैसे कोई पुराना दोस्त गले लगा रहा हो।
हर किताब मानो मुझसे कह रही हो –
“हमेशा याद रखना, हम ही तेरी असली यादों की लाइब्रेरी हैं।”
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उपसंहार
मेरी यादों की लाइब्रेरी केवल एक सार्वजनिक इमारत नहीं है। यह मेरी ज़िंदगी का आईना है।
यह वह जगह है जहाँ मैंने सपने देखे, टूटे, सँवरे और फिर से खड़े हुए।
अगर कोई मुझसे पूछे –
“तुम्हारी सबसे क़ीमती पूँजी क्या है?”
तो मैं बिना सोचे कहूँगा –
“मेरी यादों की लाइब्रेरी।”
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🖊️ लेखक: विजय शर्मा एरी
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यह कहानी लगभग 2300 शब्दों के आसपास है। इसमें आपके जीवन की तरह जुड़े भावनात्मक अनुभव, दोस्ती, प्रेम, संघर्ष और सफलता सबको एक सार्वजनिक लाइब्रेरी से जोड़ा गया है