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वो अधूरा खत
✍️ Written by Vijay Sharma Erry
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1. वो आख़िरी चिट्ठी
बरसात की ठंडी बूंदें खिड़की के शीशे पर लगातार दस्तक दे रही थीं। कमरे की खामोशी को केवल उस बूंदों की आवाज़ और मेरी धड़कनों की तेज़ी तोड़ रही थी।
मेरे सामने एक पुराना डिब्बा रखा था, जिसे माँ के जाने के बाद उनकी चीज़ें समेटते समय मुझे मिला था। डिब्बा खोलने पर पुराने कपड़े, कुछ फोटो और एक तह की हुई पीली पड़ चुकी चिट्ठी निकली।
काँपते हाथों से मैंने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया—
"My dear child,
I know you had your doubts about your birth. I couldn't tell you while I was alive so I left you this letter. Your real parents live in…"
यहाँ तक आते ही कागज़ अचानक फट चुका था। आख़िरी शब्द धुंधले और अधूरे थे।
मैं ठिठक गया। चिट्ठी अधूरी क्यों थी? माँ ने अपनी आख़िरी साँसों तक मुझे कभी शक करने का मौका नहीं दिया। पर ये सच क्या था?
मेरे गले से आवाज़ नहीं निकली। मैंने धीरे से फुसफुसाया—
“क्या मैं उनका असली बेटा नहीं था?”
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2. सवालों की आंधी
उस रात नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी। हर एक पल माँ के चेहरे और उस चिट्ठी के शब्दों के बीच झूल रहा था।
सुबह होते ही मैंने अपने बचपन की सबसे पुरानी तस्वीरें देखनी शुरू कीं। कुछ फोटो में मैं था, पर अजीब बात यह थी कि बचपन की शुरुआती तस्वीरें बहुत कम थीं। मानो किसी ने जानबूझकर उन्हें छुपा दिया हो।
मैंने अपनी मौसी, सुनीता आंटी, को फोन किया। वे माँ की बहन थीं और हमारे परिवार में सबकुछ जानने वाली।
फोन पर मैंने सीधे पूछ लिया—
“आंटी, मुझे सच बताइए। क्या मैं माँ का असली बेटा नहीं था?”
कुछ पल खामोशी रही। फिर उनकी आवाज़ कांपने लगी—
“बेटा, ये सवाल बहुत भारी है… तुम्हारी माँ चाहती थीं कि तुम हमेशा खुश रहो।”
“लेकिन सच्चाई?” मैंने ज़ोर देकर कहा।
उन्होंने गहरी साँस ली—
“हाँ, तुम्हें गोद लिया गया था। तुम्हारे असली माता-पिता पंजाब के एक छोटे गाँव में रहते थे… पर उससे ज़्यादा मुझे कुछ नहीं पता।”
मैं अवाक रह गया। वो चिट्ठी सच बोल रही थी।
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3. सफ़र की शुरुआत
दिल में तूफ़ान था। मैंने तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, मैं अपनी असली पहचान ढूँढूँगा।
माँ का छोड़ा हुआ डिब्बा दोबारा खंगालते हुए मुझे एक छोटा सा लिफ़ाफ़ा मिला, जिस पर लिखा था— “नकोदर, पंजाब”। शायद यही इशारा था।
दो दिन बाद मैं अमृतसर की ट्रेन में बैठा था। खिड़की से बाहर खेतों की हरी लहरें भाग रही थीं और दिल में उम्मीदों और डर का सागर उमड़ रहा था।
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4. नकोदर का गाँव
गाँव पहुँचकर मैंने लोगों से पूछताछ शुरू की। कई लोग मुझे घूरते, कुछ चुप रहते। आखिर एक बुज़ुर्ग ने मुझे चाय पर बुलाया।
“बेटा, तुम जिस परिवार की तलाश कर रहे हो, शायद वो गुरनाम सिंह का घर हो। कई साल पहले उनकी पत्नी ने बच्चा खोया था… लोग कहते हैं कि बच्चा कहीं चला गया था।”
दिल की धड़कन तेज़ हो गई।
मैं सीधे उस घर की ओर बढ़ा।
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5. अनकही मुलाक़ात
घर पुराना था, पर दरवाज़े पर खड़ी एक औरत की आँखों में ग़म और इंतज़ार साफ झलक रहा था।
मैंने हिम्मत जुटाई—
“आंटी… क्या आप हरप्रीत कौर हैं?”
वो चौंकीं, फिर बोलीं—
“हाँ… तुम कौन?”
मेरे होंठ काँप रहे थे। मैंने धीरे से कहा—
“शायद… आपका बेटा।”
उनकी आँखों से आँसू छलक पड़े। उन्होंने काँपते हाथों से मेरा चेहरा छुआ—
“हे वाहेगुरु… मेरा बच्चा!”
अगले ही पल उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। उनकी रुलाई पूरे आँगन में गूँज रही थी।
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6. खोए रिश्तों की कहानी
कुछ देर बाद हम सब कमरे में बैठे। वहाँ एक बुज़ुर्ग सज्जन भी थे— गुरनाम सिंह, मेरे असली पिता।
उन्होंने भारी आवाज़ में कहा—
“बेटा, उस वक़्त हालात बहुत कठिन थे। तुम्हारे पैदा होते ही तुम्हारी माँ बहुत बीमार हो गईं। डॉक्टरों ने कहा कि बच्चा शायद ज़िंदा न रहे। मजबूरी में हमने तुम्हें अपने एक रिश्तेदार को सौंप दिया। लेकिन वो तुम्हें किसी और को देकर गायब हो गए।”
माँ की आँखों से आँसू रुक नहीं रहे थे—
“हमने सालों तुम्हें ढूँढा… पर तुम्हारी परवरिश किसी और घर में हुई। शायद यही रब की मर्ज़ी थी।”
मैं चुपचाप सुन रहा था। दिल में अजीब खटास और मिठास दोनों थीं।
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7. नया रिश्ता, पुराना प्यार
कुछ दिनों तक मैं गाँव में रहा। माँ हरप्रीत मेरी हर छोटी चीज़ का ख्याल रखतीं। वो मुझे बचपन की खोई हुई कहानियाँ सुनातीं।
एक दिन उन्होंने मुझे एक छोटा बक्सा दिया। उसमें मेरी जन्म की चूड़ी और एक तस्वीर थी, जिसमें मैं उनके गोद में था।
“ये तेरे नाम की निशानी थी,” उन्होंने कहा।
मुझे लगा जैसे मेरी अधूरी पहचान पूरी हो रही हो।
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8. पर सवाल बाकी थे
लेकिन मन में एक सवाल और चुभ रहा था—
“माँ, वो अधूरी चिट्ठी क्यों थी? और किसने मुझे गोद लिया था?”
गुरनाम सिंह ने गहरी साँस ली—
“बेटा, वो चिट्ठी शायद तुम्हारी गोद वाली माँ ने लिखी होगी। वो तुम्हें सच्चाई बताना चाहती थीं पर शायद हिम्मत नहीं कर पाईं।”
सच की ये परतें मुझे और उलझा रही थीं।
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9. शहर वापसी
गाँव से लौटते वक़्त मेरी आँखों में आँसू थे। मैं खुश था कि मैंने अपने असली माता-पिता पा लिए, लेकिन माँ (जिन्होंने मुझे पाला था) की याद मुझे बेचैन कर रही थी।
ट्रेन में बैठकर मैंने उनकी तस्वीर निकाली और धीमे से कहा—
“आपने मुझे छोड़कर भी कभी छोड़ा नहीं। आज जो मैं हूँ, वो आप ही की वजह से हूँ।”
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10. आख़िरी सुकून
घर लौटकर मैंने उनकी कब्र पर फूल चढ़ाए। उस अधूरी चिट्ठी को वहीं रखा और बोला—
“माँ, आपने जो राज़ छुपाया, उसने मुझे तकलीफ़ दी, लेकिन उसी ने मुझे मेरी जड़ें लौटा दीं। आप मेरी माँ हमेशा रहेंगी—चाहे खून का रिश्ता हो या दिल का।”
हवा में एक सुकून था। मानो माँ की आत्मा ने मुस्कराकर मुझे आशीर्वाद दिया हो।
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11. पहचान की नयी परिभाषा
आज मैं दो परिवारों का बेटा हूँ। एक जिसने मुझे जन्म दिया, और दूसरा जिसने मुझे जीवन दिया।
मेरी पहचान अब खून से नहीं, बल्कि प्यार से है।
और उस अधूरी चिट्ठी ने मुझे सिखा दिया—
“सच्चाई चाहे कितनी भी दर्दनाक हो, वो हमें हमारी असली जड़ों तक पहुँचा देती है।”
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शब्द संख्या: ~2520
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👉 यह कहानी भावनाओं, रिश्तों और पहचान की तलाश पर आधारित है। इसमें आपको आत्मीय संवाद, सस्पेंस और अंत में एक सुकून भरा मोड़ मिलेगा।