कहानी का शीर्षक: अंतिम प्रतिबिंब
✍️ लेखक: विजय शर्मा एरी
---
रवि हमेशा से एक आत्मविश्वासी युवक माना जाता था। कॉलेज में उसकी हंसी सबसे ऊँची, कपड़े सबसे नए, और सोशल मीडिया पर तस्वीरें सबसे चमकदार होती थीं। लोग कहते थे – "वाह! रवि तो हर वक्त मुस्कुराता है, कितनी पॉजिटिव एनर्जी है इसमें!"
पर किसी को क्या पता था कि उस मुस्कान के पीछे कितने सवाल छिपे हैं।
हर रात जब वह घर लौटता, कमरे का दरवाज़ा बंद करता, और आईने के सामने खड़ा होता — तो खुद से नज़रें मिलाना मुश्किल हो जाता था। आईना जैसे पूछता,
"क्यों रवि? ये जो दुनिया को दिखाता है वो तू है या बस एक मुखौटा?"
वो झल्ला जाता,
"आईना भी न जाने क्या बकवास दिखाता है।"
फिर वो झट से मुस्कान ओढ़ लेता, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
---
अध्याय 1: सच्चाई का पहला अक्स
एक दिन कॉलेज में उसे एक नई लड़की मिली — सिया।
सिया बाकी लड़कियों से अलग थी। कम बोलती, ज़्यादा सुनती। उसके चेहरे पर एक शांति थी जो रवि को आकर्षित करती थी।
क्लास के बाद रवि ने पूछा,
"तुम हमेशा इतनी शांत क्यों रहती हो?"
सिया मुस्कुराई, "क्योंकि जो भीतर शोर है, वो बाहर लाने लायक नहीं होता।"
रवि को ये जवाब चुभ गया। उसने महसूस किया कि सिया ने बिना जाने, उसके भीतर झाँक लिया था।
---
अध्याय 2: नकली मुस्कान का बोझ
रवि की आदत थी हर बात में ‘फेक हैप्पीनेस’ दिखाने की।
कभी वह कहता, "मैं बहुत खुश हूं!"
कभी तस्वीरें डालता – "ज़िंदगी बेहतरीन है!"
लेकिन एक रात, जब उसके पापा ने नौकरी खो दी और घर में बहस हुई, रवि फिर भी अगले दिन कॉलेज में हँसता रहा।
सिया ने देखा, उसकी आँखों के नीचे काले घेरे थे।
वो बोली,
"रवि, अगर तू आईने में खुद को देखे, तो शायद तू खुद से झूठ बोलना छोड़ देगा।"
रवि ने झट जवाब दिया,
"आईना क्या कर लेगा? वो तो वही दिखाएगा जो मैं दिखाना चाहूँ।"
सिया मुस्कुराई —
"नहीं रवि, आईना झूठ नहीं बोलता। वो हर किसी को उसका असली चेहरा दिखाता है… बस देखने वाला होना चाहिए।"
---
अध्याय 3: टूटे आईने की रात
उस रात रवि देर तक जागा। उसने आईने के सामने खुद को देखा।
चेहरा थका हुआ था। आँखों में डर, होंठों पर झूठी मुस्कान।
उसने अचानक मुट्ठी उठाई और गुस्से में आईना तोड़ दिया।
“तू झूठा है!” — वह चिल्लाया।
लेकिन टूटे शीशे के टुकड़ों में उसे अपनी कई परछाइयाँ दिखीं —
हर टुकड़ा एक चेहरा बन गया —
एक में हँसता रवि,
दूसरे में गुस्सैल रवि,
तीसरे में डर से भरा रवि,
और सबसे छोटा टुकड़ा — आँसू भरा असली रवि।
वो कांप गया।
उसे एहसास हुआ — आईना झूठा नहीं था, वह खुद झूठ बोलता रहा।
---
अध्याय 4: सच से मुलाक़ात
अगले दिन रवि कॉलेज नहीं गया।
कमरे में बैठा रहा।
दीवार पर लटकते पुराने आईने के टूटे टुकड़ों को जोड़ने लगा।
हर टुकड़ा जोड़ते हुए उसे अपने भीतर के किसी हिस्से से सामना करना पड़ा।
वो खुद से बुदबुदाया —
“मैं इतना डरा हुआ क्यों हूँ? मैं खुश क्यों दिखाना चाहता हूँ जब मैं नहीं हूँ?”
तभी खिड़की से आती हवा ने धीरे से एक कागज़ उड़ाया, जिस पर सिया का लिखा नोट था —
> “रवि, जब तू खुद को सच में देख लेगा, तभी तेरा बोझ हल्का होगा।
आईना सिर्फ काँच नहीं होता, वो आत्मा का द्वार होता है।”
रवि ने आँखें बंद कर लीं। और पहली बार अपने मन की आवाज़ सुनी।
"मैं खुश नहीं हूँ… लेकिन मैं बेहतर बनना चाहता हूँ।"
---
अध्याय 5: आईने का उत्तर
रात फिर आई।
रवि ने नया आईना खरीदा और उसके सामने खड़ा हुआ।
इस बार उसने कहा,
“मैं वही नहीं हूँ जो दुनिया देखती है। मैं डरता भी हूँ, थकता भी हूँ, पर अब छिपूँगा नहीं।”
आईने में उसका चेहरा मुस्कुरा उठा।
जैसे काँच के उस पार बैठा कोई कह रहा हो —
“अब तू मुझे सच में देख पा रहा है।”
रवि की आँखों में आँसू आ गए, पर उन आँसुओं में अब सच्चाई थी।
वो बोला,
“धन्यवाद, आईना… तूने मुझे मुझसे मिलवाया।”
---
अध्याय 6: नई सुबह का उजाला
कुछ महीनों बाद रवि बदल गया था।
वो अब इंस्टाग्राम पर खुश दिखने की कोशिश नहीं करता था, बल्कि लोगों के साथ सच्चे रिश्ते बनाता था।
सिया उसके जीवन की सच्ची दोस्त बन गई।
एक दिन सिया ने पूछा,
“अब तो तू रोज़ आईने में देखता है न?”
रवि हँसा,
“हाँ, अब हर सुबह मैं अपने सच्चे रूप को नमस्ते करता हूँ।”
सिया बोली,
“यही तो ज़िंदगी है रवि — खुद को देखना, पहचानना और स्वीकार करना।”
---
अध्याय 7: आईना हर जगह है
रवि ने अब महसूस किया कि आईना सिर्फ दीवार पर नहीं होता —
वो हर जगह है —
किसी की आँखों में, किसी के शब्दों में, किसी की खामोशी में।
हर व्यक्ति, हर घटना, एक आईने की तरह है —
जो हमें हमारे ही किसी पहलू से मिलवाती है।
उसने डायरी में लिखा —
> “आईना बोलता नहीं, पर सब कुछ कह देता है।
बस सुनने और देखने वाला होना चाहिए।”
---
अध्याय 8: अंतिम प्रतिबिंब
सालों बाद रवि एक मोटिवेशनल स्पीकर बन गया।
एक सेमिनार में उसने अपने अनुभव साझा किए।
वो बोला,
“दोस्तों, हम सब रोज़ शीशे में देखते हैं, लेकिन खुद को नहीं देखते।
क्योंकि देखने के लिए आँखें नहीं, दिल चाहिए।
आईना हर किसी को उसका असली रूप दिखाता है…
बस देखने वाला होना चाहिए।”
सामने बैठे लोगों में सिया भी थी।
रवि ने मुस्कराकर कहा —
“धन्यवाद उस दोस्त का, जिसने मुझे मेरा चेहरा दिखाया।”
सभी ने तालियाँ बजाईं।
पर रवि जानता था —
वो तालियाँ उसके लिए नहीं, बल्कि उस आईने के लिए थीं,
जिसने उसे उसकी सच्चाई दिखाई थी।
---
अंतिम पंक्तियाँ:
> “आईना कभी झूठ नहीं बोलता,
वो हमारे दिल का सच दिखाता है।
फर्क बस इतना है —
कुछ लोग उसे देखकर मुस्कुरा देते हैं,
और कुछ… खुद से नज़रें चुरा लेते हैं।”
---
✍️ लेखक: विजय शर्मा एरी
---