। यहाँ प्रस्तुत है 1500 शब्दों की रहस्यमयी और रोमांचक हिंदी कहानी —
शीर्षक: 🌒 परछाइयों का शहर
✍️ लेखक – विजय शर्मा एरी
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परछाइयों का शहर
रात का समय था। घना अंधेरा पूरे इलाके पर छाया हुआ था। हवाएँ पेड़ों से टकरा रही थीं और खिड़कियों से टक-टक की आवाज़ें आ रही थीं। किसी अनदेखी परछाई की तरह यह शहर हर किसी को अपनी तरफ खींच लेता था, पर जो एक बार इसमें आया, वह फिर कभी लौटकर नहीं गया।
लोग इस जगह को “आत्मूआव का शहर” कहते थे, पर धीरे-धीरे इसका नाम मिट गया, और अब लोग इसे सिर्फ “परछाइयों का शहर” कहने लगे थे।
पहला दृश्य – आरव की जिज्ञासा
दिल्ली का एक युवा पत्रकार, आरव, कई बार इस जगह की खबरें सुन चुका था। कोई कहता – वहाँ आत्माएँ घूमती हैं, कोई कहता – वहाँ के लोग मरकर भी ज़िंदा हैं। पर आरव अंधविश्वासी नहीं था।
उसने सोचा – “अगर वहाँ सचमुच कुछ है, तो दुनिया को पता चलना चाहिए।”
अपने कैमरे और नोटबुक के साथ वह बस में बैठकर उस सुनसान इलाके की ओर चल पड़ा। बस ड्राइवर ने जब उसे उतारते देखा तो चौंककर बोला –
“साहब, रात होने से पहले निकल जाना। वहाँ शाम के बाद कोई नहीं रुकता।”
आरव मुस्कुराया, “डर लगता है आपको?”
ड्राइवर ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा – “डर नहीं, अनुभव है। दो साल पहले मेरा एक दोस्त भी वहीं रुका था... अब तक लौटा नहीं।”
बस आगे बढ़ गई। हवा में अजीब सी ठंडक थी, और शहर की टूटी हुई नेमप्लेट पर लिखा था – “स्वागत है आत्मुआव में”, पर नीचे लाल रंग से किसी ने लिख दिया था – “अब यहाँ कोई नहीं रहता।”
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दूसरा दृश्य – खंडहरों की आवाज़ें
आरव ने कैमरा चालू किया और रिकॉर्डिंग शुरू की –
“ये है आत्मुआव का शहर, जहाँ पिछले बीस सालों से कोई स्थायी बाशिंदा नहीं। पर आज मैं यहाँ रात बिताने जा रहा हूँ।”
आसमान में बादल गरज रहे थे। गलियों में पुराने घर थे, जिनके दरवाज़े अधखुले थे।
कहीं एक पुराना झूला हिल रहा था, जबकि हवा बिल्कुल नहीं चल रही थी।
आरव के कदमों की आवाज़ हर दीवार से टकराकर लौट रही थी, जैसे शहर खुद उससे बातें कर रहा हो।
अचानक उसके पीछे से किसी के चलने की आवाज़ आई — खर्र… खर्र…
वह मुड़ा, पर वहाँ कोई नहीं था। कैमरे की स्क्रीन पर हल्की सी छाया दिखी।
आरव ने सोचा – “शायद रोशनी का भ्रम है।”
वह आगे बढ़ा और शहर के बीचोंबीच एक पुरानी हवेली दिखी — सिंह हवेली।
कहा जाता था कि यहीं से सब कुछ शुरू हुआ था।
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तीसरा दृश्य – हवेली का रहस्य
हवेली के दरवाज़े पर पुराना ताला झूल रहा था, पर जब उसने हाथ लगाया तो दरवाज़ा अपने आप खुल गया।
अंदर अंधेरा था, पर कमरे की दीवारों पर धूल भरी पेंटिंग्स टंगी थीं।
एक पेंटिंग में पूरा शहर दिखाया गया था – लेकिन अजीब बात यह कि उस पेंटिंग में आसमान काला नहीं था, बल्कि लाल था।
कमरे के बीचोंबीच एक बड़ा आईना रखा था।
आरव ने जैसे ही कैमरा उसकी ओर किया, रिकॉर्डिंग अपने आप बंद हो गई।
वह पास गया — और देखा कि उसमें उसका चेहरा नहीं, किसी और का चेहरा झलक रहा है।
वह चेहरा उसकी तरह था — बस थोड़ा फीका, थोड़ा डरावना और आँखों में अजीब चमक थी।
आईने से आवाज़ आई —
“क्यों आया है तू यहाँ?”
आरव के रोंगटे खड़े हो गए, उसने काँपते हुए कहा — “सच जानने।”
आईना बोला — “सच देखने की कीमत होती है।”
फिर अचानक पूरा कमरा हिलने लगा। दीवारों से धूल झरने लगी और हवेली के कोनों से फुसफुसाहटें सुनाई दीं —
“हम यहाँ हैं… हम हमेशा से यहाँ हैं…”
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चौथा दृश्य – भूतों की अदालत
आरव को लगा जैसे कोई उसे खींच रहा है। वह गिर पड़ा, और जब होश आया तो उसने खुद को एक अजीब से कक्ष में पाया।
चारों तरफ परछाइयाँ खड़ी थीं — धुंधली, मगर मानवीय आकार में।
बीच में एक ऊँचा सिंहासन था, जिस पर एक बूढ़ा साया बैठा था।
उस साये ने कहा —
“हम इस शहर के रक्षक थे। हमने लोगों की मदद की, पर जब उन्होंने हमें भुला दिया, हमने उनके साथ रहना छोड़ दिया। अब यह शहर हमारा है — परछाइयों का।”
आरव ने पूछा — “क्या मैं वापस जा सकता हूँ?”
साया हँसा —
“जो यहाँ आता है, वो लौटता नहीं। उसकी यादें ही लौटती हैं।”
आरव ने हिम्मत जुटाकर कहा —
“मैं लौटूंगा। दुनिया को बताऊंगा कि परछाइयाँ असली हैं।”
साया मुस्कुराया —
“तब हमें साबित कर दिखाओ कि तुममें रोशनी अब भी बाकी है।”
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पाँचवां दृश्य – आत्माओं की परछाई
अचानक हवेली में टिमटिमाती रोशनी जल उठी। आरव ने देखा — हर परछाई एक इंसान का चेहरा ले रही थी।
एक लड़की आई — उसके बाल सफेद थे, चेहरा उदास। उसने कहा,
“मैं कभी कवयित्री थी। इस शहर की आखिरी साँस तक लिखती रही। पर जब लोगों ने मेरी कविताएँ जलाईं, मैं भी इस शहर की परछाई बन गई।”
एक और साया आगे आया —
“मैं डॉक्टर था, बीमारों की सेवा करता था। पर महामारी में सब मुझे छोड़कर भाग गए। अब मैं भी उन्हीं गलियों में भटकता हूँ।”
हर परछाई की अपनी कहानी थी — विश्वासघात, उपेक्षा, और भुला दिए जाने की।
आरव को महसूस हुआ, यह शहर आत्माओं का नहीं, भूली हुई इंसानियत का शहर है।
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छठा दृश्य – आईने का सच
वह भागता हुआ हवेली के उसी आईने के पास पहुँचा।
अब उसमें उसका चेहरा नहीं था।
वह बोला — “अगर यही अंत है, तो कम से कम मेरी आवाज़ बाहर पहुँचा दो।”
आईना फिर चमका।
आईने में उसने देखा — कैमरा अब भी ज़मीन पर पड़ा था, लेकिन उसका रिकॉर्डिंग बटन चालू था!
उसने चिल्लाकर कहा —
“जो कोई भी ये वीडियो देखे, समझ लेना – आत्माएँ डरावनी नहीं, भूली हुई होती हैं! और जो शहर इंसानियत खो देता है, वो परछाइयों का शहर बन जाता है!”
आईना टूट गया।
एक तेज़ रोशनी फैली — और सब कुछ गायब हो गया।
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सातवां दृश्य – सच्चाई की परत
अगले दिन, पुलिस ने हवेली से एक कैमरा बरामद किया।
कैमरे में आरव नहीं था, पर उसकी आवाज़ रिकॉर्ड थी।
वीडियो में बस इतना सुनाई देता था —
“परछाइयाँ जवाब नहीं देतीं… वो तुम्हें अपना बना लेती हैं…”
पुलिस ने केस बंद कर दिया, पर उस वीडियो ने सोशल मीडिया पर तूफ़ान मचा दिया।
लोगों ने हवेली में घूमने की कोशिश की, पर जो भी गया, उसने दावा किया कि उसने दीवारों पर आरव का चेहरा देखा है।
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आठवां दृश्य – नया आगंतुक
एक साल बाद, एक युवती रिया वहाँ पहुँची। वह आरव की मंगेतर थी।
वह अपने साथ वही कैमरा लेकर हवेली के अंदर गई।
जैसे ही उसने रिकॉर्डिंग चालू की, स्क्रीन पर लिखा आया –
“रिकॉर्डिंग कंटिन्यूड…”
रिया के होंठ काँपे — “आरव… तुम यहाँ हो?”
हवा में वही फुसफुसाहट गूंजी —
“मैंने कहा था न, परछाइयाँ जवाब नहीं देतीं… अब मैं भी उनमें से एक हूँ…”
रिया की आँखों से आँसू बहने लगे।
उसने कहा, “अगर तुम यहीं हो, तो मैं भी तुम्हारे साथ रहूंगी।”
अगले दिन, हवेली की दीवारों पर दो परछाइयाँ दिखीं — एक पुरुष, एक स्त्री।
लोग कहते हैं, अब वो दोनों हर पूर्णिमा की रात साथ चलते हैं, हवेली की बालकनी से बाहर झाँकते हैं।
कभी-कभी, कोई राहगीर सुन लेता है —
🎵 “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं…”
और हवा में उनकी हँसी गूंज जाती है।
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समापन
“परछाइयों का शहर” आज भी वीरान है।
पर जब चाँदनी रात होती है, हवाओं में वो परछाइयाँ चमक उठती हैं।
लोग कहते हैं — अगर तुम सच्चे दिल से पुकारो, तो हवेली के आईने में तुम्हारा अक्स नहीं, तुम्हारा सच दिखता है।
क्योंकि हर इंसान के अंदर कहीं न कहीं एक परछाई छिपी है —
जो तब जागती है, जब दुनिया उसे भूल जाती है।
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🌑 “परछाइयों का शहर”
लेखक – विजय शर्मा एरी