शीर्षक: वो अनोखा सफ़र
(Suspense Thriller Story by Vijay Sharma Erry)
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रात का वक्त था। दिल्ली से अमृतसर जाने वाली ट्रेन “स्वर्ण शताब्दी” धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म से सरक रही थी। प्लेटफॉर्म की लाइटें धुंधली होती जा रही थीं और गाड़ी की खिड़कियों से आती हवा में कुछ अजीब-सी ठंडक घुली थी।
ट्रेन के सारे डिब्बे लगभग भरे हुए थे — सिवाय एक के। वह था “D5 कोच”, जिसमें लिखा था “Reserved for Technical Staff”। लेकिन अजीब बात यह थी कि कोई स्टाफ अंदर नहीं था। वह पूरा डिब्बा खाली था।
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पहला घंटा – 9:00 PM
जैसे ही ट्रेन दिल्ली स्टेशन से निकली, डिब्बा D5 के दरवाज़े अपने आप “क्लिक” की आवाज़ से बंद हो गए। ट्रेन अंधेरे में दौड़ रही थी।
अचानक, D5 के अंदर की लाइट झिलमिलाई और अपने आप चालू हो गई। सीट नंबर 42 पर किसी के बैठने की हल्की आवाज़ आई—“चक!”
कंडक्टर रमेश, जो अगले डिब्बे में टिकट चेक कर रहा था, ने कान लगाए।
“कोई अंदर है क्या?” उसने झाँककर देखा। पर अंदर कोई नहीं था।
बस एक पुराना अख़बार सीट पर पड़ा था, जिस पर लिखा था—
> “हर घंटे कुछ नया होगा… तैयार रहो।”
रमेश ने अख़बार को घबराते हुए उठाया और खुद से बुदबुदाया,
“शायद किसी बच्चे की शरारत है।”
पर उसके जाते ही अख़बार हवा में उड़कर वापस उसी सीट पर आ गया।
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दूसरा घंटा – 10:00 PM
ट्रेन हरियाणा की सीमाओं में पहुँच चुकी थी। बाहर घना कोहरा था।
अचानक D5 कोच में ठंडी हवा का झोंका चला और एक पुराना ग्रामोफोन अपने आप बज उठा।
धीरे-धीरे उसमें से आवाज़ आई—
🎵 “कहीं दीप जले कहीं दिल…” 🎵
उस आवाज़ के साथ ही एक महिला की परछाई सीट नंबर 21 के पास दिखाई दी। उसने लाल साड़ी पहन रखी थी, और उसके माथे पर चमकता सिंदूर।
कंडक्टर रमेश ने फिर खिड़की से झाँका—
“कौन है अंदर?”
पर जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, अंदर सन्नाटा था। सिर्फ़ ज़मीन पर एक टूटी हुई मंगसूत्र की मोती की माला पड़ी थी।
रमेश ने डर के मारे वॉकी-टॉकी उठाया—
“सुपरवाइज़र साहब! D5 कोच में कुछ गड़बड़ है… कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चीजें अपने आप हिलती हैं।”
दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई—
“D5? लेकिन वो तो पिछले तीन साल से बंद है… उसमें कोई नहीं बैठता।”
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तीसरा घंटा – 11:00 PM
ट्रेन पानीपत पार कर चुकी थी।
इस बार डिब्बे की खिड़कियों पर काले हाथों के निशान उभर आए।
एक के बाद एक, जैसे कोई बाहर से अंदर घुसने की कोशिश कर रहा हो।
रमेश ने हिम्मत जुटाई और डिब्बे में गया। अंदर कोई नहीं था, लेकिन अब सारी सीटें अपने आप हिलने लगीं।
सीट नंबर 42 से फिर वही आवाज़ आई—
“वो नहीं आ पाई… उसकी मंज़िल छूट गई थी…”
रमेश ने देखा, दीवार पर किसी ने उंगलियों से लिखा था—
> “हर घंटे एक राज़ खुलेगा…”
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चौथा घंटा – 12:00 Midnight
अब आधी रात थी। बाहर गहरी धुंध और अंदर भयानक सन्नाटा।
D5 कोच के बीच में अचानक लाल रोशनी फैल गई।
सीटों के नीचे से पुराने टिकट, टूटी चूड़ियाँ और एक खून से सना रूमाल निकला।
रमेश के हाथ काँपने लगे। वह पीछे भागा और गार्ड को बुलाया—
“सर, इस डिब्बे में भूत है! चीजें अपने आप हिल रही हैं, और किसी औरत की आवाज़ आती है।”
गार्ड ने सख्ती से कहा—
“कभी ऐसी बात मत करना! वो कोच तीन साल पहले हुए हादसे के बाद बंद था। पर आज सिस्टम में गड़बड़ी से जुड़ गया है।”
“हादसा?” रमेश ने काँपते हुए पूछा।
गार्ड बोला—
“तीन साल पहले D5 में एक नवविवाहिता और उसका पति सफर कर रहे थे। आधी रात को उसका पति रहस्यमय तरीके से गायब हो गया। और अगले स्टेशन पर महिला मरी हुई मिली… आत्महत्या या हत्या, आज तक कोई नहीं जान पाया।”
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पाँचवाँ घंटा – 1:00 AM
अब D5 में घड़ी अपने आप चलने लगी।
हर दीवार पर समय 1:00 AM दिखा रहा था।
अचानक डिब्बे के दरवाज़े बंद हो गए और ट्रेन अपने आप की रफ़्तार से धीमी होने लगी।
रमेश ने खिड़की से देखा—ट्रेन किसी “अनजान स्टेशन” पर रुक गई थी।
प्लेटफॉर्म पर कोई नहीं था। सिर्फ़ एक बोर्ड चमक रहा था—
> “शांति नगर – अंतिम ठहराव”
डिब्बे में महिला की आवाज़ गूँजी—
“तीन साल… इंतज़ार किया है मैंने… अब वो आएगा…”
अगले ही पल सीट नंबर 42 पर एक आदमी की परछाई उभरी, जिसने काले कपड़े पहन रखे थे।
वह धीरे-धीरे बोला—
“मैं लौट आया… तुमने बुलाया था…”
दोनों परछाइयाँ आमने-सामने आईं, और अचानक पूरा डिब्बा सफेद रोशनी से भर गया।
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छठा घंटा – 2:00 AM
गार्ड और पुलिस ट्रेन में पहुँचे तो D5 के दरवाज़े खुले हुए थे।
अंदर अब शांति थी। सीटें अपनी जगह पर थीं, कोई आवाज़ नहीं थी।
पर जमीन पर दो हड्डियाँ, एक लाल साड़ी का टुकड़ा और पुराने ग्रामोफोन का आधा टूटा रेकॉर्ड पड़ा था।
पुलिस ने जाँच शुरू की।
अचानक, डिब्बे के एक कोने में रमेश बेहोश पड़ा मिला।
जब उसे होश आया, उसने काँपती आवाज़ में कहा—
“मैंने उन्हें देखा था… वो दोनों आत्माएँ… मिल गईं थीं… फिर हवा में गायब हो गईं।”
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सातवाँ घंटा – 3:00 AM
जैसे ही ट्रेन अमृतसर के पास पहुँची, D5 की खिड़की पर किसी ने लिखा पाया—
> “अब हर घंटे नहीं, हर सफर में हम मिलेंगे… D5 को न छेड़ना…”
रेलवे ने अगले दिन आदेश दिया—
“D5 कोच को स्थायी रूप से बंद किया जाए।”
पर हर रात 9 बजे के बाद, गार्ड और सफाई कर्मचारी बताते हैं कि D5 से गुलाब की खुशबू और ग्रामोफोन की धीमी आवाज़ आती है।
🎵 “कहीं दीप जले कहीं दिल…” 🎵
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आठवाँ घंटा – सुबह 4:00 AM
अगली सुबह जब सूरज निकला, तो ट्रेन अमृतसर पहुँच चुकी थी।
D5 कोच को अलग किया गया। जब सफाईकर्मी अंदर गए, तो पाया कि सीट नंबर 42 पर अब भी अख़बार रखा था—
पर इस बार उस पर नई लाइन लिखी थी—
> “हमारा सफर अब पूरा हुआ… धन्यवाद, रमेश।”
रमेश ने वो अख़बार पढ़ा और चुपचाप आसमान की ओर देखा।
ट्रेन की सीटी बजी… और उसके कानों में फिर वही गीत गूंज उठा—
🎵 “कहीं दीप जले कहीं दिल…” 🎵
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समापन
उस दिन के बाद से कोई भी उस डिब्बे में कदम नहीं रखता।
रेलवे ने उसे स्थायी रूप से बंद कर दिया। लेकिन हर रात 9 बजे जब “स्वर्ण शताब्दी” दिल्ली से चलती है,
लोग कहते हैं कि D5 की खिड़कियों में एक लाल साड़ी वाली स्त्री बैठी दिखती है…
और कोई न कोई अदृश्य हाथ, उसे बाहर जाते यात्रियों को अलविदा कहते हुए हिलाता है।
और जब घड़ी में हर घंटे की टिक-टिक सुनाई देती है…
तो लगता है जैसे वो अब भी सफर में हैं —
एक अधूरे प्रेम की कहानी, जो ट्रेन के पहियों की आवाज़ में आज भी गूंजती है।
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✍️ लेखक: विजय शर्मा एरी
(एक अनोखा सफर — जब वक्त भी डर जाए, और प्रेम अमर हो जाए)