Childhood games in Hindi Motivational Stories by Vijay Sharma Erry books and stories PDF | बचपन के खेल

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बचपन के खेल

बचपन के खेल: आंसुओं की गलियां
विजय शर्मा एरी
(शब्द संख्या: लगभग १५००)
सूरज की पहली किरण जब गांव की मिट्टी को चूमती, तो मेरा दिल धड़क उठता। मैं, छोटू, अपनी उस पुरानी साइकिल पर सवार, जिसके हैंडल पर मां की आखिरी सिलाई अभी भी चमकती थी। मां चली गई थीं जब मैं सात का था – बुखार ने छीन लिया। वह साइकिल उनकी याद थी, जंग लगी चेन में उनकी कोमल उंगलियों की थिरकन महसूस होती। हरिपुर का वह गांव, जहां खेत हरे, नदी गाती, लेकिन मेरे अंदर एक खालीपन सदा रहता। फिर भी, खेल... बचपन के खेल ही थे जो मुझे जीने की सांस देते। कंचे की चमक, गिल्ली-डंडा की थाप, खो-खो की दौड़ – वे मेरी मां की गोद थे। दादाजी की कांपती आवाज गूंजती, "बेटा, खेल में ही जिंदगी है। लेकिन याद रख, हर हंसी के पीछे आंसू छिपे होते हैं।"
रवि... मेरा रवि। वह मेरा भाई था, दोस्त से ज्यादा। दो साल बड़ा, लंबा, हमेशा मुस्कुराता। उसके आंखों में चांदनी, हंसी में बहार। उसके पिता की मजदूरी, मां की थकान – लेकिन रवि कभी शिकायत न करता। हमारा घर एक दीवार के पार, लेकिन दिल एक। कंचों से शुरू हुई दोस्ती – स्कूल के बाहर, पीपल की छांह में। मैं फेंकता, कंचा इधर-उधर। हारता, रो पड़ता। रवि झुकता, मेरी आंखें पोंछता, "अरे छोटू, रो मत। देख, अगली बार मैं हार जाऊंगा। तू मेरा हीरो है।" उसके हाथ जादू के थे – कंचा बीच में। लेकिन उसकी गोद में सिर रखकर रोना... वह पल स्वर्ग था। "मां जैसा लगता है तू," मैं बुदबुदाता। वह हंसता, "तो मैं तेरी मां बन जाऊंगा।"
गर्मियों की छुट्टियां – स्वर्ग। सुबह नदी किनारे गिल्ली-डंडा। गिल्ली उछालते, दंडा मारते। "मारो छोटू! आसमान फाड़ दो!" रवि चिल्लाता, आंखों में चमक। गेंद नदी में – हम कूदते, भीगते, गले मिलते। पानी की बूंदें चेहरे पर, हंसी के आंसू। "रवि, तू न होता तो मैं अकेला..." एक बार कहा मैं। वह गंभीर, "कभी मत कहना। हमारा खेल कभी न रुकेगा।" खो-खो में वह मुझे छुपाता, भूतनी का पीछा में रक्षा करता। रातें चांदनी में, छुपम-छुपाई – लेकिन नाम 'रवि-छोटू की जंग'। हंसी, पसीना, प्यार – सब मिश्रित।
फिर आया वह जुलाई। बारिश की पहली बूंदें – आंसू सी। "कागज की नाव!" रवि ने कहा, आंखें चमकाईं। अखबारों से नावें – मेरी लाल, मां की याद में; रवि की नीली, आकाश की। नदी किनारे, नावें तैराईं। मेरी बह गई, रवि की रुकी। "जीत मेरी!" वह हंसा, लेकिन तभी... आसमान फटा। बाढ़। पानी का सैलाब। हम भागे। मैं आगे, रवि पीछे। "रुको छोटू! तेरी नाव... मां की याद... ले आता हूं!" वह चिल्लाया। मैं मुड़ा, हाथ बढ़ाया। लेकिन लहर ने निगल लिया। रवि बहा। "रवि! भाई! ना!" मेरी चीख नदी में डूबी। वह तैरता रहा, मुस्कुराया – आखिरी बार। "खेलते रहना छोटू..." फिर... शांत।
मैं पत्थर। गांव रोया। रवि की मां मरी सी, पिता टूटे। तलाश – दिनभर। रातें नदी किनारे, मैं चिल्लाता, "रवि! आ जा भाई! खेलना है न?" हाथ खाली। साइकिल पर रोज जाता, मां की सिलाई छूता, रोता। कंचे फेंकता – लेकिन बिना रवि के, वे आंसू बन जाते। दादाजी गले लगाते, "बेटा, रवि तेरे दिल में खेल रहा।" लेकिन दर्द... चाकू सा। स्कूल में चुप। दोस्त? कोई न। शहर चला गया परिवार। लेकिन रवि... हर सांस में।
बड़े हुए। इंजीनियर। शादी। बेटा – रवि जैसा मुस्कुराता। लेकिन रातें? नींद में रवि आता। "खेलो छोटू... मां की तरह मैं हूं न?" आंसू बहते। बेटे ने पूछा, "पापा, क्यों उदास?" डायरी दी – रवि की कहानियां, आंसुओं से भीगी। बेटा पढ़ा, रोया। "चलो गिल्ली-डंडा!" पार्क में खेले। बेटे की थाप में रवि। मैं रो पड़ा। "पापा?" बेटा गले लगा। "तेरा चाचा रवि... यहीं है।"
फिर हरिपुर लौटा। साल बीस। नदी शांत। रवि का घर – दरवाजा खुला। मां... बूढ़ी, आंखें खाली। "कौन?" "मैं... छोटू।" वह कांपी, गले लगी। "बेटा! रवि का छोटू!" रोईं हम। "वह तुझे याद करता... कहता, छोटू मेरा बेटा। मां जैसा प्यार।" नदी किनारे बैठे। मैंने बताया – 'रवि मैदान' बनवाया। बच्चे खेलते – कंचे, गिल्ली। मां ने हाथ पकड़ा, "तूने रवि को जिंदा किया। लेकिन बेटा, मैं अकेली... रवि के बिना..." आंसू। मैं रोया, "मां, मैं हूं न? आपकी बहू, पोता।"
शाम ढली। साइकिल निकाली। जंग लगी, लेकिन घूमी। नदी किनारे दौड़ा। हवा में रवि की आवाज – "मारो छोटू! आसमान छू!" आंसू बह निकले। घुटनों पर बैठा, चीखा, "रवि! भाई! मां! क्यों छोड़ गए?" नदी ने सुना। चांद निकला। कंचा उठाया – फेंका। बीच में गिरा। चमत्कार। रवि का जादू।
अब, हर बच्चे की हंसी में रवि। हर गिल्ली में मां। बचपन के खेल... वे आंसू हैं, प्यार हैं, जख्म हैं। वे सिखाते – हार में जीत, बिछड़न में मिलन। रवि चला गया, लेकिन उसकी हंसी मेरी धड़कन। मां की सिलाई मेरी रक्षा। खेल खत्म न हुए – वे दिल में चलते हैं। अमर। अनंत।
जब भी बारिश हो, नदी गाए, मैं मुस्कुराता हूं। आंसू के साथ। क्योंकि बचपन के खेल... वे जीवन के सबसे गहरे घाव भरते हैं। रवि, तू जहां भी हो, खेल रहे न? मैं आ रहा हूं... फिर से।
(शब्द संख्या: 1498