# अदृश्य आदमी
### लेखक: विजय शर्मा एरी
रमेश का जीवन एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार की तरह था। सुबह उठना, ऑफिस जाना, शाम को लौटना और फिर अगली सुबह की तैयारी। तीस साल की उम्र में भी उसे लगता था कि उसकी ज़िंदगी एक पुरानी रील की तरह बार-बार दोहराई जा रही है। न कोई रोमांच, न कोई आश्चर्य।
एक दिन की बात है, जब रमेश अपनी पुरानी अलमारी साफ कर रहा था। धूल भरी किताबों के बीच उसे एक अजीब सी शीशी मिली। शीशी पर किसी प्राचीन भाषा में कुछ लिखा था जिसे वह समझ नहीं पाया। जिज्ञासावश उसने शीशी खोली और उसमें से एक मीठी खुशबू उभरी। अचानक उसका सिर चकराने लगा और वह बेहोश हो गया।
जब उसकी आँखें खुलीं तो सब कुछ सामान्य लग रहा था। वह उठा और बाथरूम की ओर बढ़ा। आईने के सामने खड़े होकर जब उसने अपना चेहरा देखने की कोशिश की, तो उसके होश उड़ गए। आईने में कुछ नहीं था! वह दिख नहीं रहा था!
"ये क्या हो गया?" रमेश ने घबराकर अपने हाथों को देखा। वे दिख रहे थे, लेकिन जैसे ही उसने आईने की ओर देखा, उसका प्रतिबिंब ग़ायब था। उसने अपने गालों को थपथपाया - अनुभूति थी, लेकिन दृश्य नहीं।
घबराहट में उसने अपनी पत्नी प्रिया को आवाज़ लगाई। "प्रिया! प्रिया! जल्दी आओ!"
प्रिया रसोई से निकलकर आई। "क्या हुआ? इतना क्यों चिल्ला रहे हो?"
"तुम... तुम मुझे देख पा रही हो?" रमेश ने काँपती आवाज़ में पूछा।
"हाँ, देख रही हूँ। तुम ठीक तो हो? चेहरा पीला पड़ गया है।"
रमेश ने राहत की साँस ली। शायद उसका भ्रम था। लेकिन जब उसने फिर से आईने में देखा, वही समस्या थी। कोई प्रतिबिंब नहीं।
अगले कुछ दिनों में रमेश को एक अजीब बात का एहसास हुआ। वह लोगों के लिए धीरे-धीरे अदृश्य होता जा रहा था। न शारीरिक रूप से, बल्कि एक अलग तरीके से। लोग उसकी ओर देखते, लेकिन उसे देखते नहीं थे। वे उसकी बात सुनते, लेकिन सुनते नहीं थे।
ऑफिस में एक दिन, जब वह अपने प्रोजेक्ट की प्रेजेंटेशन दे रहा था, उसके बॉस ने बीच में टोका, "कोई और है जो इस विषय पर बोलना चाहे? रमेश, तुम चुप ही रहते हो हमेशा।"
"लेकिन सर, मैं तो पिछले पंद्रह मिनट से बोल रहा हूँ!" रमेश ने विरोध किया।
सब लोग उसकी ओर देखने लगे, जैसे उन्होंने उसे पहली बार देखा हो। "अच्छा... हाँ... ठीक है। तो आगे बोलो," बॉस ने बेमन से कहा।
घर पर भी यही हाल था। प्रिया उससे बात करती, लेकिन ऐसे जैसे वह वहाँ है ही नहीं। बच्चे अपने खेल में मशगूल रहते, उनकी परवाह किए बिना कि पिता क्या कह रहे हैं।
एक शाम रमेश पार्क में बैठा था। उसने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति भी वहाँ अकेले बैठे थे। उनकी आँखों में वही उदासी थी जो रमेश महसूस कर रहा था।
"नमस्ते, क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?" रमेश ने पूछा।
बुजुर्ग ने मुस्कुराकर हाँ में सिर हिलाया। "तुम भी अदृश्य हो गए हो, है ना?"
रमेश चौंक गया। "आप... आप कैसे जानते हैं?"
"क्योंकि मैं भी हूँ। जब इंसान अपने अस्तित्व को भूलने लगता है, जब वह अपनी पहचान खो देता है, तब वह दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है," बुजुर्ग ने समझाया।
"लेकिन मैं तो हमेशा अपना काम करता हूँ, अपनी जिम्मेदारियाँ निभाता हूँ," रमेश ने कहा।
"बिल्कुल। लेकिन तुमने कब आखिरी बार अपने लिए कुछ किया? कब तुमने अपनी पसंद का खाना माँगा? कब तुमने अपनी राय रखी? कब तुमने 'नहीं' कहा? तुम एक मशीन बन गए हो, रमेश। और मशीनों को कोई नहीं देखता, लोग बस उनका इस्तेमाल करते हैं।"
वे शब्द रमेश के दिल में चुभ गए। सच में, कब उसने आखिरी बार अपने सपनों के बारे में सोचा था? कब उसने अपनी इच्छाओं को प्राथमिकता दी थी?
उस रात रमेश ने निर्णय लिया। अगले दिन से वह बदलाव लाएगा। सुबह उसने अपनी पसंदीदा नीली शर्ट पहनी, जिसे प्रिया हमेशा पुराने ज़माने की कहती थी। नाश्ते में उसने पराठे की जगह पोहा बनाया, जो उसे पसंद था।
ऑफिस में मीटिंग के दौरान जब उसके सहकर्मी राजीव ने उसके आइडिया को अपना बताने की कोशिश की, तो रमेश ने विरोध किया। "माफ कीजिए सर, लेकिन ये आइडिया मेरा था। मैंने पिछले हफ्ते ईमेल में भी शेयर किया था।"
सबने चौंककर उसकी ओर देखा। बॉस ने फाइलें चेक कीं और रमेश की बात सही निकली। "अच्छा काम, रमेश। आगे भी ऐसे ही आइडिया लाते रहो।"
घर आकर जब बच्चे टीवी पर कार्टून देख रहे थे, तो रमेश ने टीवी बंद कर दिया। "आज हम सब साथ में कैरम खेलेंगे। मुझे तुम लोगों के साथ समय बिताना है।"
पहले तो बच्चों ने विरोध किया, लेकिन फिर खेल में मज़ा आने लगा। प्रिया भी जुड़ गई। कितने दिनों बाद घर में हँसी की आवाज़ गूँजी।
धीरे-धीरे रमेश बदलता गया। उसने अपनी पुरानी हॉबी, पेंटिंग, फिर से शुरू की। सप्ताहांत पर वह अपने लिए समय निकालने लगा। उसने अपनी राय रखना शुरू किया, अपनी पसंद-नापसंद व्यक्त करना शुरू किया।
और अजीब बात हुई। लोग उसे देखने लगे। सुनने लगे। वह फिर से दृश्यमान हो गया था।
एक दिन उसे फिर से वही शीशी मिली जो अलमारी में रखी थी। इस बार उसने उसे ध्यान से देखा। शीशी पर लिखा था - एक अजीब प्रतीक जो आईने की तरह लग रहा था। और नीचे छोटे अक्षरों में कुछ लिखा था जिसे उसने पहले नज़रअंदाज़ कर दिया था।
उसने अपने एक मित्र से, जो संस्कृत का विद्वान था, उसे पढ़वाया। वह लिखा था - "जो स्वयं को भूल जाता है, वह सबके लिए अदृश्य हो जाता है।"
रमेश मुस्कुराया। वह शीशी एक श्राप नहीं थी, बल्कि एक सबक था। उसने उसे सीख लिया था।
उस शाम वह फिर पार्क गया। वही बुजुर्ग व्यक्ति वहाँ बैठे थे। "आप दिख रहे हैं अब," बुजुर्ग ने मुस्कुराते हुए कहा।
"और आप?" रमेश ने पूछा।
"मैं... मैं अभी भी सीख रहा हूँ। लेकिन तुम्हें देखकर उम्मीद बंधती है।"
रमेश उनके पास बैठ गया। "तो चलिए, साथ में सीखते हैं।"
और दोनों ने साथ बैठकर सूर्यास्त देखा। दो लोग जो दृश्यमान होने का सफर तय कर रहे थे, एक साथ।
रमेश ने सीख लिया था कि अदृश्यता कोई जादुई शक्ति नहीं है जो किसी शीशी से मिलती है। असली अदृश्यता तब आती है जब हम खुद को भूल जाते हैं, जब हम अपने अस्तित्व को नकारने लगते हैं। और दृश्यमान होने का रास्ता भी सरल है - बस अपने आप को पहचानना, अपने आप से प्यार करना और अपनी आवाज़ को बुलंद करना।
वह अब एक अदृश्य आदमी नहीं था। वह रमेश था - एक जीवित, साँस लेता, महसूस करता इंसान। और यही सबसे बड़ी जीत थी।
**समाप्त**