Beete samay ki REKHA - 13 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 13

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बीते समय की रेखा - 13

13.

दीमक और खाद की कहानी तो आपने सुनी ही होगी। दोनों ही पेड़ों में लगते हैं। किंतु दीमक जहां पेड़ से रस चूस कर उसे भीतर से खोखला बना देती है वहीं खाद अपना सत्व पेड़ और मिट्टी को देकर उसे और भी हरा - भरा बनाती है। पल्लवित करती है।
रेखा के व्यक्तित्व का यही बोध वाक्य था। खाद बनो, दीमक नहीं। दीमक बनने पर हर कोई तुम्हें हटाना चाहेगा, खाद बनने पर हर कोई समेट कर तुम्हें पेड़ के पास रखेगा। जब तेज़ हवा चलती है तो दीमक पेड़ से और चिपक जाता है कि कहीं दूर जाकर नष्ट न हो जाए। किंतु खाद यदि उड़ कर बिखरती भी है तो उसे फ़िर समेट कर पौधे के नज़दीक लाया जाता है। यदि न भी लाया जाए तो वो जहां रहे वहीं घास की हरियाली कर देती है। फलसफा है।
रेखा ने जहां एक ओर अपने पुराने विश्वविद्यालय के काम, परीक्षाएं, परिणाम, नए विद्यार्थियों के प्रवेश आदि के काम में अपने आप को झौंक दिया वहीं सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित नए विश्वविद्यालय के आरंभिक कामों की आयोजना, समय सारिणी, प्रशासनिक व अकादमिक नियमावलियां, विभिन्न पदों पर भर्तियां, छात्रावासों की व्यवस्था आदि के कामों में अपने आप को व्यस्त कर लिया।
एक न एक विश्वविद्यालय की गाड़ी उसके घर के दरवाज़े पर हमेशा खड़ी ही दिखाई देती। उसे अपने परिवार की तमाम ज़रूरतों का भी ध्यान बराबर बना रहता। वह सुबह के समय बच्चों के नाश्ते, बुजुर्गों की चाय आदि के लिए रसोई में होती तो दोपहर में विभिन्न विभागों में प्रोफ़ेसरों व अन्य अधिकारियों के भर्ती के साक्षात्कार में बैठी होती।
उसके वाइस चांसलर के पद को स्वीकार कर लेने पर नए विश्वविद्यालय की गवर्निंग काउंसिल ने उसे कार्य ग्रहण करने के लिए कुछ और समय देना मंजूर कर लिया था। लेकिन नए विश्वविद्यालय के किसी भी कार्य में उसके कारण कोई व्यवधान या विलंब न हो, इसके लिए उसने सप्ताह के कुछ दिन नई जगह पर उपस्थित रहने की व्यवस्था भी कर ली थी।
घर में परिहास में बच्चे व अन्य परिजन रेखा से कहते कि हमने तो कभी अपनी पढ़ाई के दौरान किसी विश्वविद्यालय के कुलपति को घंटे - दो घंटे से अधिक परिसर में रुकते हुए ही नहीं देखा, पर आपकी व्यस्तता तो दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है।
रेखा मुस्कुरा कर कहती इस उम्र में काम नहीं करूंगी तो कब करूंगी। सचमुच वह राज्य के छोटी उम्र के कुलपतियों में ही शामिल थी।
उसे औपचारिकताओं की आड़ लेकर समस्याओं से बचना कभी भी पसंद नहीं रहा, वह हमेशा किसी भी बाधा में पूरी तरह इन्वॉल्व होकर उसे आधारभूत रूप से सुलझाना और उसका समाधान करने में यकीन करती थी। इसके लिए वह पद सोपान की प्रक्रिया में उलझना भी पसंद नहीं करती थी। उसका पूरा ध्यान कठिनाइयों को कांटे की तरह निकाल फेंकने पर होता था। उसके विद्यार्थी तथा सहकर्मी उसकी इसी बात को मन से समझते थे और उसे विशिष्ट सम्मान देते थे। 
प्रायः शैक्षणिक प्रशासकों को ट्रबल शूटर होते कम ही देखा जाता है। आज ज़्यादातर लोगों का विश्वास तो हर समस्या पर समिति, दल, आयोग गठित करने पर रहता है ताकि समस्या के छींटे भी अपने व्यक्तित्व पर न पड़ें और कहीं कुछ अन्य लाभ भी हो। और इसे मज़े से लोकतंत्र कह दिया जाता है।
दिन गुजरते रहे और वह समय भी आया जब भरे मन से रेखा ने वह विश्वविद्यालय छोड़ दिया जहां उसने पहले खुद शिक्षा पाई और फ़िर उसके पल्लवित होते संसार में अपनी क्षमताओं की आहुति देकर उसे संवारा।
नया विश्वविद्यालय जयपुर में ही स्थित था मगर यह शहर से काफ़ी दूरी पर था। इसके संस्थापक कहा करते थे कि महत्वपूर्ण संस्थाएं शहर से बाहर दूरी पर बनने का लाभ यह होता है कि शहर उन्हें अपने में समेट लेने के लिए तेज़ी से बढ़ता है। यही विकास का मूल मंत्र है।
नए विश्वविद्यालय में कुलपति आवास का निर्माण तब तक नहीं हुआ था अतः रेखा ने जयपुर में अपने निजी आवास में रहना ही पसंद किया। यहां से विश्वविद्यालय की गाड़ी उसे लेने और छोड़ने आती जिसके कारण दैनिक दिनचर्या में लगभग डेढ़ घंटे का अतिरिक्त समय और जुड़ गया। यात्रा का यह समय राजधानी के ट्रैफिक में तनाव भरा ज़रूर होता था किन्तु रेखा कहती थी कि व्यस्त रूटीन में आँखें बंद करके डेढ़ घंटे बैठ पाना उसे अलग तरह का सुकून देता है और ऐसे में वह उन बातों पर सोच पाती है जिन पर सोचने के लिए अन्यथा समय नहीं मिलता। अपने शोधार्थियों के मौलिक प्रश्नों पर सोचने और नवोन्मेषी गतिविधियों की कल्पना कर पाने के लिए वह इसी समय का उपयोग कर पाती थी।
कारों में दफ्तरों से लौटती महिलाओं का प्रिय शौक भव्य दुकानों की "विंडो पीपिंग" उसे कभी नहीं रहा।
***
29.
इन दिनों एक नई उलझन से भी रेखा को दो -चार होना पड़ा। वह कभी अपनी स्नातकोत्तर डिग्री के लिए जयपुर में रही थी और हॉस्टल में रह कर राजस्थान यूनिवर्सिटी में पढ़ी थी। दूसरी ओर उसका स्वभाव ऐसा था कि साथ के विद्यार्थी, सहकर्मी, परिजन सब उसमें अपने लिए एक अपनापन देखते थे।
अब जब लोगों को पता चला कि वह एक नए विश्वविद्यालय की कुलपति बन कर इसी शहर में आ गई है तो उससे मिलना चाहने वालों की जैसे बाढ़ सी आ गई।
किसी को एडमिशन लेना है तो किसी को अपने करियर के बारे में परामर्श करना है या सलाह चाहिए।
किसी को नौकरी की दरकार है।
किसी को विश्वविद्यालय में कोई काम लेना है - ड्राइवर हों, माली हों, सफ़ाई कर्मी हों, कंप्यूटर कर्मी हों, मेस या कैंटीन के ठेकेदार हों... आदि आदि।
प्रोफ़ेसर बनना है, अधिकारी बनना है, कार्मिक बनना है।
या फिर परीक्षक बनना है, शोध करना है, शोध गाइड बनना है।
रेखा को मन ही मन ये उलझन ज़रूर होती थी कि लोग आज अपनी क्षमता पर नहीं, बल्कि सिफ़ारिश पर ही भरोसा करते हैं। उन्हें लगता है कि कोई ऐसा उनका हो जो सब नियम- कानून एक तरफ़ रख कर उनका काम करवा दे।
मज़े की बात यह है कि ये लोग ऐसे लोगों को ही महान या बड़ा मानते हैं जो उनके काम करवा दे, चाहे काम नियमों के विरुद्ध ही क्यों न हों। किसी को इस बात की चिंता नहीं होती कि योग्य या पात्र लोगों को दरकिनार करके सिफारिश या पहचान के बूते अपना काम निकलवा लेने वाले ये लोग समाज का कितना अहित करते हैं। देश, राज्य या शहर की छवि को ऐसे ही लोग तो बिगाड़ते हैं जिन्हें अपनी योग्यता पर ज़रा भी भरोसा न हो फ़िर भी अपना उल्लू सीधा करवा लें।
और यदि उनका काम न हुआ तो वो तपाक से ये तमगा देने से भी नहीं चूकते - ये तो घमंडी हैं, पद का गुमान हो गया है, अपनों को ही भूल गए हैं...
ऊपर से शांत - चित्त दिखाई देते हुए भी रेखा लोगों के इस रवैए से आहत होती थी। 
रेखा के लिए अन्य कई चुनौतियों में एक यह चुनौती भी जुड़ गई कि वह अपनी नई जिम्मेदारी में निष्पक्ष और कार्यकुशल भी दिखाई देती रहे।
अपने सही- ग़लत काम करा कर निकल जाने वालों को यह अहसास कहां रहता है कि हमने एक योग्य व सक्षम व्यक्ति को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर लिया है और अब इसकी छवि इस तरह खराब भी हो सकती है कि यह तो अपने - अपने लोगों का भला करने वाली हैं। उनकी बला से।
यह विश्वविद्यालय केवल महिलाओं के लिए था और साथ में आवासीय भी था। देश भर से पढ़ने के लिए यहां विद्यार्थी आते थे। अतः यहां सुरक्षा व्यवस्था बेहद कड़ी रखने की भी एक ख़ास चुनौती थी।
कई बार अपनी बच्चियों को यहां छात्रावास में छोड़ कर जाते समय उनके माता - पिता की आँखें भर आती थीं और वे कहते भी थे कि हम अपने शहर में तो बच्ची को दो- चार घंटे के लिए कहीं बाज़ार या रिश्तेदारी में अकेले भेजने के लिए भी चिंतित हो जाते हैं और यहां पूरे साल के लिए आप लोगों के भरोसे छोड़ जा रहे हैं। यही बात रेखा को हर घड़ी, हर बच्ची के लिए याद रहती थी।
दुनिया जिसने भी बनाई है, बहुत सोच - समझ कर विलक्षण खूबियों के साथ बनाई है।
यहां कुदरत जब देखती है कि उसका कोई बाशिंदा बेहद मेहनत और कर्मठता के साथ दूसरों के लिए काम करने में लगा है, पूरे समाज का लाभ सोच रहा है और निजी स्वार्थ से बहुत ऊपर उठ गया है तो वो भी उस इंसान की हर तरह से मदद करने में जुट जाती है। शायद उसका सपना भी तो यही है कि दुनिया में अच्छे काम हों, होते रहें।
स्त्री शिक्षा और शिक्षित महिला उत्थान के लिए लगातार काम करती हुई रेखा को भी शायद कुदरत ने इसीलिए कुछ और समय व सहूलियत देने की ठानी।
लगभग इन्हीं दिनों उसका सुपुत्र अपने उच्च अध्ययन के लिए विदेश चला गया। बेटे को अपने से दूर कर उसकी मनपसंद पढ़ाई के लिए हज़ारों मील दूर भेजते समय भी रेखा ने अपने "मां" रूप को अपने "शिक्षिका" रूप की आड़ में छिपाए रखा। उसने एक मेधावी विद्यार्थी के रूप में बेटे को अपने सभी कार्य व तैयारी स्वयं करने के लिए प्रेरित किया और उसे आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया।
एयरपोर्ट पर उसे दृष्टिपरे (सी - ऑफ) करते हुए भी संभवतः रेखा अपनी सूनी आंखों से उसे यही संदेश दे रही थी कि अब तुम बड़े हो गए हो और आगे से अपना जीवन सफ़ल बनाने के सभी निर्णय तुम्हें स्वयं लेने चाहिएं।
विमान जाने के चंद घंटे बाद ही रेखा अपने चैंबर में एक ज़रूरी अकादमिक मीटिंग के लिए विश्वविद्यालय कैंपस में मौजूद थी।
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