Khamosh jindagi ke bolate jajbat - 11 in Hindi Love Stories by Babul haq ansari books and stories PDF | खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 11

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खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 11


                       भग:11
           
              रचना:बाबुल हक़ अंसारी

             "टूटा भरोसा और अनकहा सच…"


पिछले खंड से…

    गुरु शंकरनंद की आँखें झुकीं।
उनकी खामोशी ही सबसे बड़ा जवाब थी।

आर्या और नीरव आमने-सामने

मंच पर भीड़ का शोर धीरे-धीरे थम चुका था।
सबकी निगाहें अब सिर्फ़ आर्या और नीरव पर थीं।

आर्या की आँखों में आँसू चमक रहे थे, पर होंठों से निकला स्वर किसी तलवार से कम न था —
"नीरव, तुमने कहा था कि मैं तुम्हारी सबसे बड़ी ताक़त हूँ।
फिर क्यों आज मुझे सबके सामने गिरा दिया?
क्या तुम्हें लगा कि मैं ये सच सह नहीं पाऊँगी?"

नीरव ने काँपते हुए हाथ जोड़ लिए,
"आर्या… मैंने तुम्हें कभी खोना नहीं चाहा।
लेकिन अगर मैं सच छुपाता रहता तो मैं खुद को खो देता।
मैंने बस वही किया जो ज़रूरी था।"

आर्या ठहाका मारकर हँसी, वो हँसी जिसमें दर्द भरा हुआ था।
"ज़रूरी?
तो क्या ज़रूरी था मेरा अपमान करना?
क्या ज़रूरी था मेरे सपनों को राख बना देना?
तुम्हारे सच ने मुझे ताक़त नहीं दी नीरव… उसने मुझे अकेला कर दिया!"

भीड़ हक्का-बक्का थी।
कहीं तालियाँ थमीं, कहीं फुसफुसाहट तेज़ हो गई।


भावनाओं की लड़ाई

नीरव ने आगे बढ़कर कहा,
"आर्या, सच मानो… तुम आज भी मेरी रूह में बसी हो।
लेकिन ये मंच, ये भीड़… ये सब मेरे झूठ पर खड़े सपनों का बोझ नहीं झेल सकते।
मैंने अपने गुनाह का बोझ उठाया है, अब मुझे मत कहो कि मैं कायर हूँ।"

आर्या ने उसकी आँखों में देखा, एक पल को चुप हुई… फिर बोली —
"नीरव, मोहब्बत भरोसे पर टिकती है।
और तुम्हारे सच ने मेरा भरोसा ही तोड़ दिया।
अब हमारे बीच बस खामोशी है… और वो खामोशी हमेशा जलती रहेगी।"

ये कहते ही आर्या ने माइक ज़मीन पर पटक दिया।
भीड़ में सन्नाटा छा गया।


अनया का हस्तक्षेप

अनया बीच में आई, उसकी आवाज़ काँप रही थी मगर दृढ़ थी —
"बस करो दोनों!
ये लड़ाई सिर्फ़ तुम्हारी नहीं है।
मेरे पिता की आत्मा भी इस मंच पर खड़ी है।
और मैं नहीं चाहती कि उनकी रूह हमारे झगड़े में उलझकर भटकती रहे।"

उसकी आँखों से आँसू झरने लगे।
"अगर सच इतना ही भारी है, तो गुरुजी… अब और देर मत कीजिए।
बता दीजिए वो सच, जिससे सबके जख्म भर सकें।"

गुरु शंकरनंद का राज़… (आधी झलक)

गुरुजी ने अपनी लंबी साँस खींची।
उनकी आँखों में बरसों पुरानी यादें तैरने लगीं।
उन्होंने माइक पकड़ा और कहा —

"तुम सब सोचते हो कि रघुवीर त्रिपाठी की हार सिर्फ़ उनकी जिद या नीरव की चाल थी।
लेकिन असली सच्चाई इससे कहीं गहरी है…
वो हार असल में हार नहीं थी।
वो एक सौदा था… जो इस मंच से बहुत दूर, बंद दरवाज़ों के पीछे हुआ था।"

भीड़ में खलबली मच गई।
आर्या और नीरव दोनों एक साथ चौंक उठे।
अनया काँपते हुए बोली —
"कौन सा सौदा, गुरुजी?"

गुरुजी ने नज़रें झुका लीं और बस इतना कहा —
"वो सौदा जिसने तुम्हारे पिता की कलम को खामोश किया… और मेरी आत्मा को कैदी बना दिया।"

गुरुजी की खामोशी के बाद भीड़ और बेचैन हो उठी।
किसी ने जोर से कहा —
"अगर सब सौदा था तो गुनहगार कौन है?"

दूसरे ने सवाल किया —
"क्या त्रिपाठी जी ने अपनी हार बेच दी थी?"

गुरुजी की आँखें भर आईं।
"नहीं… त्रिपाठी ने नहीं, उन्हें हराया गया था।
वो भी कलम से नहीं, चाल से… सत्ता और स्वार्थ की चाल से।"

मंच पर सरगर्मी बढ़ गई।
अनया का दिल जैसे धड़कते-धड़कते रुक गया।
उसने ठान लिया — अब चाहे जितना दर्द हो, उसे ये सच जानना ही होगा।


(जारी रहेगा… भग:12 में)

अगले भाग में आएगा:

गुरु शंकरनंद का असली सौदा — किसने और क्यों रघुवीर त्रिपाठी की कलम को तोड़ दिया।

भीड़ की बगावत और मंच पर हंगामा।

और अनया का वो फ़ैसला… जो नीरव और आर्या दोनों की किस्मत बदल देगा।