Title: “अनकही बातें
लेखक: विजय शर्मा एरी
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सुबह की धूप खिड़की से छनकर कमरे में फैली हुई थी। हवा में पुरानी किताबों की खुशबू थी और मेज़ पर फैले काग़ज़ों में एक अधूरी चिट्ठी रखी थी—बिना पते की।
काग़ज़ का रंग पीला पड़ चुका था, शायद सालों से किसी इंतज़ार में होगी।
१. एक पुराना संदूक
राधा अपने पुराने पुश्तैनी घर को बेचने से पहले सफ़ाई कर रही थी। बरामदे में रखे एक संदूक को खोलते ही उसे पुराने पत्र, तस्वीरें, और कुछ रिबन बंधे ख़तों का गट्ठर मिला। हर ख़त किसी रिश्ते की कहानी कहता था।
पर उस गट्ठर में एक पत्र ऐसा था, जिस पर न नाम था, न पता—बस शब्द थे, जो किसी अधूरी भावनाओं का सागर लग रहे थे।
राधा ने धीरे-धीरे पढ़ना शुरू किया—
> “तुम्हें शायद याद भी न हो कि हमारी पहली मुलाकात बरसात के दिन हुई थी। तुमने भीगती सड़क पर मुझे छाता दिया था, और कहा था—‘सर्दी लग जाएगी।’
उस दिन से आज तक, मैं हर बारिश में उसी आवाज़ को सुनता हूँ...”
राधा की आँखें उस चिट्ठी के हर शब्द पर टिक गईं। उसे लगा जैसे वो आवाज़ वही सुन रही हो। लेकिन ये पत्र किसका था? किसके नाम लिखा गया था? और क्यों बिना पते के?
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२. दादी का रहस्य
राधा ने घर के पीछे आँगन में बैठी अपनी बूढ़ी दादी, शारदा देवी से पूछा,
“दादी, ये पत्र किसका है?”
शारदा देवी ने चश्मा उतारकर चिट्ठी को गौर से देखा। उनकी आँखों में हल्की नमी तैर गई।
“ये तो... तुम्हारे दादा जी की लिखावट जैसी लगती है,” उन्होंने कहा, फिर चुप हो गईं।
“पर दादी, अगर ये दादाजी की है, तो पते के बिना क्यों?”
शारदा देवी कुछ पल तक चुप रहीं, फिर बोलीं,
“हर पत्र को भेजने के लिए डाकिया नहीं चाहिए, राधा... कुछ चिट्ठियाँ दिलों से निकलती हैं, और वहीं तक पहुँचती हैं।”
राधा को ये जवाब अधूरा सा लगा। उसने ठान लिया कि वो इस रहस्य को सुलझाएगी।
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३. शहर की धूप और पुराना सच
राधा ने शहर के पुराने डाकखाने में जाकर जानकारी निकाली। वहाँ के बूढ़े पोस्टमास्टर हरनाम सिंह अब रिटायर हो चुके थे। वो अब मंदिर के पास रहते थे।
राधा उनसे मिलने गई। उन्होंने उसे देख मुस्कराते हुए कहा,
“बेटी, ये वही चिट्ठी है जो कभी भेजी ही नहीं गई। तुम्हारे दादाजी खुद आए थे यहाँ, लेकिन फिर वापस ले गए।”
“क्यों?” राधा ने उत्सुकता से पूछा।
हरनाम सिंह ने गहरी साँस ली—
“क्योंकि जिसे भेजनी थी, वो शादी कर चुकी थी किसी और से…”
राधा को जैसे किसी ने झटका दे दिया।
“तो ये प्रेम पत्र था?”
“हाँ,” बूढ़े पोस्टमास्टर ने कहा, “पर उस प्रेम में दर्द ज़्यादा था, इज़हार कम।”
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४. वो औरत कौन थी?
घर लौटकर राधा ने दादी से सीधा सवाल किया—
“दादी, क्या दादाजी किसी और से प्यार करते थे?”
शारदा देवी कुछ पल तक चुप रहीं, फिर मुस्कराकर बोलीं,
“हाँ, औरत थी वो... पर नाम मत पूछो। क्योंकि उस प्यार में कोई गुनाह नहीं था।”
“फिर आप कैसे मान गईं उनसे शादी करने को?”
“क्योंकि मैं जानती थी, दिल का एक कोना किसी के लिए हमेशा खाली रहेगा, और मैं उस खाली जगह की इज़्ज़त करना जानती थी।”
राधा की आँखों में आँसू आ गए। उसे पहली बार समझ आया कि प्यार कभी-कभी अधूरा रहकर भी पूरा होता है।
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५. बरसों बाद की मुलाक़ात
अगले दिन राधा ने उस पत्र को फिर पढ़ा।
पत्र के आख़िरी शब्द थे—
> “अगर कभी तुम मेरी यादों की गली से गुज़रो, तो रुक जाना। मैं वहीं बैठा रहूँगा, जहाँ तुमने अलविदा कहा था।”
वो गली राधा के दादाजी के गाँव में थी—एक पुरानी झील के पास।
राधा ने वहाँ जाने का निर्णय लिया।
वहाँ पहुँची तो देखा, एक पुरानी बेंच पर “आर + म” खुदा हुआ था।
शायद—रामनाथ और माया!
अब रहस्य पूरा होने को था।
वहीं पास में एक पुराना स्कूल था। राधा ने वहाँ के प्रधानाचार्य से पूछा,
“क्या इस गाँव में कभी माया नाम की कोई शिक्षिका थी?”
वो बोले, “थी... माया जी, जो बरसों पहले लुधियाना चली गईं। कहा जाता है, उन्होंने कभी शादी नहीं की।”
राधा ने गहरी साँस ली। शायद वही थीं, जिनके नाम वो चिट्ठी थी—एक ऐसी माया, जिसे कभी डाकिया ढूँढ नहीं पाया।
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६. अनकही पाती की यात्रा
राधा लुधियाना पहुँची। बहुत ढूँढने पर उसे एक वृद्धाश्रम में माया जी मिलीं।
सफ़ेद बाल, हल्की मुस्कान, और आँखों में झील सी गहराई।
“नमस्ते, क्या आप माया जी हैं?”
“हाँ बेटी, पर तुम कौन?”
राधा ने वह पुरानी चिट्ठी उनके सामने रख दी।
माया जी ने काँपते हाथों से काग़ज़ उठाया। कुछ देर तक उसे देखती रहीं, फिर आँसू टपक पड़े।
“ये रामनाथ की लिखावट है... तुम कौन हो?”
“मैं उनकी पोती—राधा।”
माया जी ने सिर झुकाकर कहा,
“तो वो अब...?”
“नहीं, दादी और मैं ही रह गए हैं।”
कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा।
फिर माया जी ने कहा,
“इस चिट्ठी का जवाब कभी लिखा नहीं मैंने, क्योंकि पता नहीं था कि जवाब देने से कुछ बदलेगा या नहीं। पर आज... आज शायद वक्त ने जवाब दे दिया है।”
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७. प्रेम जो पत्रों से परे था
राधा और माया जी झील के किनारे बैठीं। माया ने धीरे से कहा,
“रामनाथ से मुलाक़ात कॉलेज में हुई थी। हम दोनों कविता लिखा करते थे। एक बार उन्होंने कहा था—
‘कभी-कभी शब्द ही दिल की आवाज़ होते हैं।’
पर समाज ने हमें अलग कर दिया। मेरी शादी तय हो गई, पर मैंने उसे तोड़ा... और फिर कभी शादी नहीं की।”
राधा की आँखें भीग गईं।
“दादी जानती थीं सब।”
माया जी मुस्कराईं—
“हाँ, वो महान थीं। उन्होंने मेरी जगह कभी नहीं ली, बस उस खालीपन को संभाला।”
फिर दोनों देर तक झील को देखते रहीं। हवा में जैसे पुराने दिनों की खुशबू थी।
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८. पत्र का अंत या शुरुआत
राधा ने वह चिट्ठी माया जी के हाथों में रख दी।
“अब ये आपको ही रखनी चाहिए।”
माया जी ने सिर हिलाया,
“नहीं बेटी, ये अब तुम्हारी है। क्योंकि ये सिर्फ़ प्रेम की नहीं, सच्चाई की कहानी है।”
राधा ने धीरे से कहा,
“मैं इसे अपने दिल में रखूँगी, ताकि अगली पीढ़ी जाने कि सच्चा प्यार केवल पते पर नहीं, आत्मा में लिखा जाता है।”
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९. अनकहा संवाद
उस रात राधा स्टेशन पर बैठी थी। ट्रेन आने में देर थी।
वो आसमान की ओर देख रही थी, जहाँ बादलों के बीच से चाँद झाँक रहा था।
उसने महसूस किया, जैसे हवा में कोई पुराना गीत तैर रहा हो—
> “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं,
तेरे बिना ज़िंदगी भी लेकिन ज़िंदगी तो नहीं...”
राधा की आँखों से आँसू बह निकले।
शायद यही वो धुन थी जो दादा-दादी और माया जी के दिलों में बजती रही थी।
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१०. एक नई चिट्ठी
घर लौटकर राधा ने काग़ज़ निकाला।
उसने लिखा—
> “प्रिय दादाजी,
आपकी बिना पते की चिट्ठी अब अपने पते तक पहुँच चुकी है।
मैंने माया जी को देखा, वो मुस्करा रही थीं।
आपने जो अधूरी कहानी लिखी थी, उसे अब मैं पूरा कर रही हूँ—
ताकि आने वाली पीढ़ी जाने कि हर प्रेम कहानी का अंत नहीं होता, कुछ कहानियाँ बस पाती बनकर हवा में बिखर जाती हैं।”
फिर राधा ने उस चिट्ठी को अपने घर के बरगद के नीचे दबा दिया।
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११. अंत में...
बरगद की छाँव में अब वो काग़ज़ मिट्टी में बदल चुका था,
पर उसकी खुशबू हवा में थी—
एक ऐसी खुशबू, जो बताती थी कि कुछ रिश्ते शब्दों में नहीं, भावनाओं में जीते हैं।
राधा ने आसमान की ओर देखा और मन ही मन कहा—
“पते की ज़रूरत उन्हीं को होती है, जो दूर होते हैं।
जिनके दिल जुड़े हों, उनके लिए तो हवा ही डाकिया होती है।”
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✉️ समाप्त ✉️
(एक बिना पते की चिट्ठी, जिसने तीन ज़िंदगियों को जोड़ा — समय, प्रेम और सत्य के अदृश्य धागे से. )