Quotes by NR Omprakash Saini in Bitesapp read free

NR Omprakash Saini

NR Omprakash Saini

@nromprakash220721
(94.5k)

नख से प्रियतम पीठ उकेरे, लाल लकीरें खींचे।
दंश बने वे सुख की ज्वाला, वासना को सींचे॥

चरमोत्कर्ष

तन पर तन जब टूट पड़ा तब, प्रलय नृत्य-सा छाया।
सागर-सी गहराई लेकर, दोनों ने रस पाया॥
साँसों की गति तेज हुई जब, कंपित हुए निखिल अंग।
रति-कामिनी और रति-नाथ ने, साध लिया मधुर संग॥

क्षण-क्षण बनकर वज्र घुला जब, सुध-बुध सारी खोई।
पल-पल में अनहद आनंदित, लहर उठी अघि-रोई॥
मदमस्त प्रेयसि गिरकर बोली — “रोक न अब उर-तृष्णा।”
प्रिय आलिंगन में डूब गया, बनकर अनंग-कृष्णा॥

उस रजनी की स्मृति अमर हो, गूँज उठे संसार।
तन-मन आत्मा एक हुई थी, रति-रस का आधार॥

Read More

नख-शिख वर्णन

नाभि-कूप में बूँद चमकती, स्वर्ण सुधा की धारा।
जंघा-जंघा की गहन गुफा में, तृषा हुई इकतारा॥
अंग-अंग में चुम्बन बिखरे, पुष्प निखरते जाएँ।
नख-शिख तक प्यास समेटे, आँचल गिरकर छिपाए॥

वक्षस्थल पर थरथर कंपित, झील लहर-सी बोले।
कुंचित पांवों में गुँजित घुँघरू, देह को सुख से डोले॥
साँस-साँस जब ज्वाला बनकर, जलने लगी दिशाएँ।
वासना के तूफानी झोंके, तन को मदन चढ़ाएँ॥

Read More

चुम्बन व नेत्र-भाषा

अधर-अधर पर झुके सलोने, मधु-रस टपकने पाए।
प्रियसी बोली मौन हृदय से, "और समीप ही आए॥"
ज्योति-ज्योति से जुड़कर बोली, नेत्र-कमल की भाषा।
स्पर्श-स्पर्श में लिख गई मन की, काम-रसिल अभिलाषा॥

कुंतल-गुच्छ खिंचकर बिखरे, वक्ष उठे थर्राकर।
श्वासों के तूफ़ान जगे जब, देह हुई अंगार॥
मदिरा-से अधर घुल गए फिर, जिह्वा जिह्वा लिपटी।
लज्जा की मर्यादा टूटी, वासना नभ में चढ़ती॥

Read More

काम रति काव्य

आलिंगन

रजनी ओढ़े चाँद सजीला, फूल लुटाएँ गंधी।
शीतल पवन सँवारे केशों, झूम उठे हर कली॥
प्रियतम ने आलिंगन कसकर, तन को तन से बाँधा।
नयनों से नयनों को पीकर, हृदय-तरंगों साधा॥

स्पर्श जगा जब रोम-रोम में, वासना की धारा।
कंपित उर पर श्वास घुली तब, मत्त हुई मधुहारा॥
दृग-दृग में दीपक प्रज्वलित, अग्नि बनी संयोगी।
आलिंगन में जगत भुलाकर, खो गए अनुरागी॥

Read More

“मैं”
१.
मैं शब्द नहीं, चिंगारि प्रखर,
जो देह जले, मन दीप धरे।
हर बार जहाँ “मैं” बोल उठे,
सत्य वहीं सिमटे, मौन भरे॥

२.
“मैं” ऊँचा हुआ, “तू” हो गया क्षुद्र,
भ्रम जाल यही जग बाँध गया।
मानव रोया मानव से ही,
“मैं” शिखर चढ़ा, मन डूब गया॥

३.
“मैं” बाँटा धर्म, सीमाएँ खींचीं,
मंदिर-मस्जिद सब तोड़ गया।
युद्ध जगाया, लहू बहाया,
अहंकार सृष्टि को मोड़ गया॥

४.
जो “मैं” कहे – “सब मुझमें हैं”,
वह सत्य सुधा रस पा लेता।
जो झुके सहज, जो मौन बहे,
वह “मैं” अमरता पा लेता॥

५.
मृत्यु अंत नहीं, आरंभ नया,
जब देह धूल में खो जाती।
“मैं” मिट जाता, आत्मा जागे,
साक्षी बन जग को देख जाती॥

६.
जल में, वायु में, रेत प्राण में,
“मैं” सूक्ष्म रूप में फैल रहा।
जब “मैं” तजोगे, तभी पाओगे,
वह “मैं” जो सबमें खेल रहा॥

एन आर ओमप्रकाश 'अथक'

Read More

“अब कुछ खोने को शेष नहीं”
(— एन. आर. ओंप्रकाश ‘अथक’)

मैं सब कुछ खो चुका हूँ अब,
खोने को कुछ भी शेष नहीं।
सपनों की माला टूट चुकी,
आशाओं का संदेश नहीं।

प्यार गया, विश्वास गया,
रिश्तों का भी आकार गया।
जो साथ चला था उम्रभर,
वह राह में ही लाचार गया।

दोस्ती का दीप बुझा कहाँ,
न जाने कौन हवा ले गई,
और जवानी — जैसे धूप की रेखा,
धीरे-धीरे ढलती रह गई।

अब बस एक निःशब्द किनारा है,
जहाँ लहरें थम जाती हैं।
मन पूछे — “क्या यही अंत है?”
और आँखें नम हो जाती हैं।

पर भीतर कहीं एक ज्वाला है,
जो अब भी बुझने देती नहीं।
थोड़ी-सी रवानी बाकी है,
थोड़ी-सी कहानी बाकी है।

मन कहता —
अब धन नहीं चाहिए,
न मान, न यश, न पहचान चाहिए।
बस एक झलक उस सत्य की,
जो सबमें है — वही ज्ञान चाहिए।

अब कुछ पाने की चाह यही —
ईश्वर को पा लूँ, बस यही।
उसमें ही खो जाऊँ यूँ जैसे,
बूँद सागर में समा जाए।

जो मैंने खोया — लौटे न सही,
पर जो अब मिल जाए वही शाश्वत हो।
खाली हाथ आया था जग में,
अब तृप्त हृदय विदा हो जाऊँ —
यही अंतिम प्रार्थना हो।

Read More

मैं —
एक शब्द नहीं, आग का अंगार हूँ,
जो जितना पास रखे, उतना ही दागदार हूँ।

मैं से ही युद्ध जगत के सारे जन्मे,
मैं से ही टूटे कितने अपने।
मैं ने ही मंदिर-मस्जिद बाँटी,
मैं ने ही प्रेम की लकीर काटी।

मैं इतना बड़ा कि सत्य भी छोटा,
मैं इतना गहरा कि ईश्वर भी खोटा।
जब-जब मैं सिर चढ़ बोल पड़ा,
मानव से मानवता डोल पड़ी।

रिश्ते मेरे आगे झुक जाते,
नेत्रों के दीपक बुझ जाते।
हर बंधन को मैं चीर गया,
हर अपनापन मैं ही पीर गया।

मैं भूल गया कि नश्वर हूँ,
क्षणभंगुर यह सारा जीवन है।
जो आज झुकता न किसी के आगे,
कल उसकी चिता में “मैं” दफन है।

मृत्यु आती है — मौन, निराकार,
और निगल लेती है “मैं” का अहंकार।
तब शून्य बचता — वही सच्चा “मैं”,
जो देह नहीं, पर आत्मा का सत्य है।
एन आर ओमप्रकाश।

Read More

मैं...
यह तीन अक्षरों का शब्द नहीं,
एक पूर्ण ब्रह्मांड है —
जिसमें घमंड की धूल भी है,
और ज्ञान का अमृत भी।

मैं वह पहला स्वर हूँ
जो किसी ने बोला, “मैं हूँ!”
और उसी क्षण जन्मा
वियोग, द्वेष, अधिकार और सीमा का संसार।

क्योंकि जब “मैं” आया,
तो “तू” पीछे छूट गया।
वहीं से प्रारंभ हुआ
सबसे बड़ा युद्ध —
मनुष्य बनाम मनुष्य।

मैं ने कहा —
“यह मेरा है!”
और धरती काँप उठी।
पहाड़, नदियाँ, हवाएँ सब
बंधन में बंध गए।
मैं ने कहा — “यह तेरा नहीं!”
और आकाश भी तंग लगने लगा।

मैं ने रिश्तों को भी
संपत्ति की तरह बाँटा,
हर अपनापन में स्वार्थ मिलाया।
मित्रता के प्याले में जहर घोला,
प्रेम में भी स्वामित्व बोया।

मैं —
जो सबसे ऊँचा दिखना चाहता है,
पर खुद अपनी छाया से हार जाता है।
जिसे सम्मान चाहिए,
पर विनम्रता नहीं आती।
जो सबको झुका देखना चाहता है,
पर खुद झुकने से डरता है।

मैं ही वह अंधा राजा हूँ
जो अपने ही सिंहासन का कैदी है,
जिसे लगता है वह जीत गया—
पर हार चुका होता है अपने भीतर से।

मैं ने साम्राज्य रचे, मंदिर गढ़े,
किताबें लिखीं, युद्ध लड़े।
मैं ने कहा — “मैं ईश्वर हूँ।”
और यहीं से पतन आरंभ हुआ।
क्योंकि जिस दिन “मैं” ईश्वर हुआ,
उसी दिन ईश्वर मानव से चला गया।

मैं ने सत्य को भी अपनी माप में तौला,
धर्म को भी हथियार बना डाला।
मगर मृत्यु मुस्कराई —
धीमे से बोली, “ठहर,
अब मैं आ रही हूँ।”

जब देह राख बनी,
और अहंकार धुएँ में घुला,
तब जाना —
जो “मैं” समझा था, वह केवल भ्रम था।
वह “मैं” जो दिखता था,
मर गया।
पर जो नहीं दिखता था,
वह अमर हो गया।

सच्चा “मैं” तो वह है —
जो मौन में भी बोलता है,
जो किसी को नीचा नहीं देखता,
जो जानता है —
“मैं और तू अलग नहीं।”

वह “मैं” अहंकार नहीं,
वह आत्मा का प्रतिध्वनि है,
जो कहती है —

“मैं वही हूँ जो सबमें है,
और सब मुझमें हैं।”

इसलिए,
हे मानव —
जब तू “मैं” कहे,
तो भीतर झाँक कर देख,
कौन बोल रहा है —
अहंकार या आत्मा?

क्योंकि अंत में,
मृत्यु आकर सब “मैं” मिटा देती है,
और जो शेष रह जाता है —
वही सत्य है,
वही शांति है,
वही अनंत “मैं” है।

Read More

तेरी दृष्टि दिशा दिखलाती, पथ कितना भी कठिन,
तेरे संग में मन को मिलता, हृदय सुधा रस घन।
संघर्षों की आँधी छूकर, दीपक जगमग होता,
प्रेम मिले जब जीवन पथ में, दुख भी सुख-सा होता।

https://chat.whatsapp.com/C7r7UbYtXXxAVtdS86qd3G?mode=ems_copy_c

Read More