एक खयाल,
मन में एक खयाल ....
क्या था जो मन में हलचल सा मचा रहा था
जैसे संवादों में अर्थ होते हुए भी अर्थ ढूंढ रही थी
कैसी शांत अविरल सी बहती जा रही थी जैसे किसी तूफ़ान को आंखो में ही कैद कर रखना चाहती थी ,
मैं क्यों नहीं चाहती थी उस खयाल से खुद को जुदा करना
एक आवरण सा ओढ़ लिया था अपने मन पर
एक खयाल ,
तपती मरुभूमि में एक बूंद बनकर जो बरसी वो
अथाह समुंदर को समेट ले जैसे अपने अंदर
कैसी आह थी ये जिसे आंखो के पानी से शीतल कर रही थी ,
ना जाने क्यों ..... खयालों से जुदा नहीं होना चाहती