स्त्री और पुरुष – जाल और संस्कार का भ्रम
सदियों से समाज में यह धारणा रही है कि औरत का काम है सहन करना, चुप रहना, कष्ट झेलना।
लेकिन जो कष्ट सहना आज “संस्कार” कहा जाता है, वह वास्तव में पीढ़ी-दर-पीढ़ी बुनी गई जंजीरें हैं।
पुरुष ने अपने वर्चस्व और सोच के अनुसार नियम बनाए,
और कहा — “भाई, बेटियों और पत्नियों के लिए यही सही है।”
साथ ही, स्त्री ने भी – माँ, सास, बहन –
अपने बेटियों, बहुओं और बहनों के लिए वही जाल बुनना जारी रखा,
जो उन्होंने खुद पीढ़ियों तक सहा था।
माँ कहती है – “हमने सहा, तुम्हें भी सहना होगा।”
सास कहती है – “हमने झेला, अब तुम्हारी बारी है।”
बहन कहती है – “संस्कार यही हैं, चुप रहो।”
इस तरह स्त्री ने भी स्त्री के लिए जाल बुन दिया,
और पुरुष ने भी अपनी बेटियों, बहुओं और पत्नियों के लिए वही सोच बनाई।
इस जाल में फँसकर
बहू, बेटी और पत्नी हमेशा सहन करने वाली बनकर रह गई।
आज भी जब कोई पुरुष दूसरी शादी करता है, या गलत दिशा में जाता है,
तो परिवार के लोग कहते हैं —
"अरे, खाने-पीने को तो मिल रहा है, इतनी बड़ी बात नहीं।"
और यही सोच संस्कार का नाम ले लेती है।
लेकिन सवाल उठता है —
क्या सच में कष्ट सहना संस्कार है?
क्या चुप रहना और अन्याय सह लेना ही बहु या स्त्री को संस्कारी बनाता है?
बिल्कुल नहीं।
संस्कार वह है जब इंसान सही के लिए खड़ा होता है,
जब वह अन्याय रोकता है,
और समाज में समानता और न्याय बनाए।
हमारी पीढ़ियाँ यह जाल और यह भ्रम छोड़ सकती हैं।
अगर स्त्रियाँ अपनी बेटियों, बहुओं और बहनों के लिए ढाल बनें,
अगर पुरुष भी अपनी बेटियों, पत्नियों और बहनों के लिए सही का समर्थन करें,
तो यह जाल टूट सकता है।
तब यह कहावत बदलेगी —
“स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है” नहीं,
बल्कि स्त्री ही स्त्री की ताक़त है।
और संस्कार का असली मतलब समझ में आएगा –
कष्ट सहना नहीं, कष्ट रोकना।