पता है मुझ को कि अब वो तपाक-ए-दिल नहीं है
हमारे दरमियाँ शायद वो पहले मंज़िल नहीं है
नज़र से नूर-ए-उल्फ़त आज-कल है दूर बैठा
ख़ुशी में भी कोई दिल का शगुफ़्ता महफ़िल नहीं है
वो बातें अब फ़क़त रस्मों की इक दीवार बन गईं हैं
जहाँ एहसास की कोई भी ताज़ा शामिल नहीं है
ये ख़ामोशी जो छाई है ये धोका ही नहीं तो क्या है
लबों पे लफ़्ज़ हैं लेकिन वो सच्चा साहिल नहीं है
गुज़र तो वक़्त जाएगा मगर ये याद रखना 'हमदम'
रिश्ते की नज़ाकत में कोई भी ग़ाफ़िल नहीं है