जीवन का सन्नाटा
कभी नया घर था, नई खुशबू थी,
दीवारों पर बच्चों की हँसी की लहर थी,
हर सुबह आँचल में सूरज भर लेता था,
हर शाम चाँदनी में सपनों को गिनता था।
वक्त ने कदम आगे बढ़ाए यूँ,
जो खिलखिलाते थे, उड़ गए धूप में कहीं,
किसी शहर में, किसी देस में बसे वो,
माँ-बाप की चौखट हो गई खाली वहीं।
दो हाथ थे, जो अब थमे नहीं,
एक ने मौन धरा, शून्य गगन में लीन हुआ,
दूसरा अकेला बैठा आँसुओं में भीगता,
जहाँ पहले हँसी थी, अब बस प्रतिध्वनि हुआ।
दिन ढले तो सूरज भी थक गया,
दीप बुझा, जीवन की लौ शांति बनी,
अंत में एक आत्मा चली सहज गति से,
पीछे छोड़ गई घर, यादें और चुप्पी धनी।
कभी मन्दिर में दीप जला था,
अब वही दीप है राख तले,
जीवन एक पूरा वृत्त बन गया,
जो शुरू हुआ, वहीँ जाकर थम गया अकेले।
आर्यमौलिक