✧ मूर्ति से अनुभव तक — धर्म की यात्रा ✧
🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
मनुष्य का आरंभ ‘A for Apple’ से होता है।
वह अक्षर नहीं समझता, पर उसकी ध्वनि को याद करता है।
धीरे-धीरे वही ध्वनि भाषा बन जाती है, वही भाषा अर्थ बनाती है।
पर यदि कोई जीवन भर ‘A for Apple’ ही दोहराता रहे,
तो वह कभी ‘B’ तक नहीं पहुँच सकता।
यही हाल मनुष्य के धर्म का है।
मूर्ति, शास्त्र, कथा, यह सब धर्म की प्राथमिक कक्षा है।
ये प्रतीक हैं, जिनसे आत्मा पहली बार किसी अदृश्य को छूना सीखती है।
मूर्ति का उद्देश्य था — ध्यान को एक दिशा देना,
न कि ध्यान को उसी में बाँध देना।
पर मनुष्य वहीं ठहर गया जहाँ उसे बस थोड़ी देर रुकना था।
उसने साधन को साध्य बना दिया,
सीढ़ी को मंज़िल समझ लिया।
जैसे माँ का स्तन बच्चे के लिए आवश्यक है,
पर वही स्तन अगर बड़ा होकर भी उसकी “ज़रूरत” बना रहे,
तो वह विकास नहीं, निर्भरता है।
उसी तरह, मूर्ति तब तक धर्म है जब तक वह भीतर की यात्रा की शुरुआत है।
पर जब वह ही मंज़िल बन जाए,
तो वह धर्म नहीं — अंधविश्वास है।
पुराण, कथा, शास्त्र — ये सब संकेत मात्र थे।
वे प्रतीक थे उस सत्य के, जिसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है।
पर मनुष्य ने उन संकेतों को ही सत्य घोषित कर दिया।
अब सत्य खोजा नहीं जाता, बस सुनाया जाता है।
जो सुन ले, वही “आस्तिक”;
जो पूछ ले, वही “नास्तिक” कहलाता है।
यही सबसे बड़ा भ्रम है —
धर्म ने बोध को खो दिया,
और कथा ने अनुभव को निगल लिया।
आज का धर्म उपन्यास बन गया है,
जहाँ कथा है, संवाद है, चमत्कार है —
पर आत्मा की कोई उपस्थिति नहीं।
वास्तविक धर्म मूर्ति में नहीं,
मौन में है।
वह किसी मंदिर के पत्थर में नहीं,
बल्कि मनुष्य के सचेत क्षण में जन्म लेता है।
जिसे एक बार भीतर देखा जाए,
वह हर मूर्ति में वही तेज देख सकता है —
पर मूर्ति की पूजा नहीं,
उसमें छिपे प्रतीक का बोध करता है।
इसलिए आवश्यक है —
हम मूर्ति का विरोध न करें,
पर मूर्ति पर ठहर भी न जाएँ।
वह सीढ़ी है,
पर मंज़िल नहीं।
जब धर्म प्रतीक से अनुभव की ओर लौटेगा,
तब ही मनुष्य फिर से ईश्वर को नहीं,
स्वयं को पाएगा।