“वेदांत.2.0 — स्त्री अध्याय”
हार का धर्म — जब पुरुष ने स्त्री से डरकर ईश्वर गढ़ा ✧
धर्म की गहराई में एक पुरुष की हार दबाई गई है —
स्त्री से हारा हुआ पुरुष ही धर्म बनाता है।
क्योंकि उसे जीवन को नियम में बाँधना पड़ता है,
कहीं वह उस सहज लय से फिर न हार जाए जो स्त्री में सहज है।
स्त्री को समझना कठिन नहीं है,
पर उसे स्वीकार करना असंभव लगता है —
क्योंकि स्त्री को स्वीकार करना मतलब
नियंत्रण छोड़ देना, तर्क छोड़ देना, जीत छोड़ देना।
और पुरुष ने सदा अपनी पहचान किसी न किसी जीत से बनाई है।
इसलिए धर्म उसके लिए सुरक्षा है,
जहाँ वह अपने भय को पवित्र नाम दे सके।
वह लय, जो स्त्री के भीतर स्वाभाविक है —
ममता, मौन, समर्पण, और सहजता —
उसे पुरुष ‘शक्ति’ कह कर पूजा में रख देता है,
पर कभी उसमें उतरने की हिम्मत नहीं करता।
स्त्री की यह स्वाभाविकता ही उसका धर्म है —
उसे किसी मंत्र, किसी विधि, किसी तप की ज़रूरत नहीं।
वह जीवित धर्म है —
जिसमें सृष्टि बिना आदेश, बिना प्रयोजन,
बस बहती है, खिलती है, मिटती है।
और पुरुष —
जो इस लय को नहीं समझ पाता —
वह व्यवस्था बनाता है,
राज्य बनाता है,
विज्ञान बनाता है,
और फिर उसमें उस लय का कृत्रिम संस्करण खोजता है।
जब स्त्री पुरुष जैसी हो जाती है —
तेज़, लक्ष्यवान, प्रतियोगी —
तब आकर्षण मिट जाता है।
क्योंकि आकर्षण दो विरोधों के बीच की विद्युत् है —
मौन और वाणी की, स्थिरता और गति की।
जब दोनों एक जैसे हो जाते हैं,
तो संगीत रुक जाता है।
स्त्री की शक्ति उसकी करुणा है,
पुरुष की सीमा उसका अहंकार।
शिव और कृष्ण इसलिए पूर्ण हैं —
क्योंकि वे हारने को तैयार थे।
एक ने नृत्य किया,
दूसरे ने रास।
दोनों ने अपने भीतर की स्त्री को स्वीकार किया —
तभी वे ईश्वर बने।
आज का पुरुष फिर वही भूल दोहरा रहा है —
वह स्त्री के संग खड़ा है,
पर अपने भीतर स्त्रीत्व खो चुका है।
वह संग नहीं, सत्ता में खड़ा है।
वह संवाद नहीं, निर्देशन कर रहा है।
जब वह फिर से श्री के संग मौन में खड़ा होगा —
जब वह जीतने के बजाय सुनने लगेगा —
जब वह वाणी नहीं, लय खोजेगा —
तब वह पुनः हारेगा।
और यही हार — सच्चा धर्म है।
क्योंकि धर्म जीतने का नहीं, पिघलने का नाम है।
Vedānta 2.0 © 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 —