सर्पेष्टि यज्ञ नियोक्ता मैं जनमेजय.....
बन काल-विकराल धर्म पर आया,
बहुभांति कुचक्र अधर्म ने फैलाया।
सभी स्तंभ जब डिगने लगे,
पग एक में ही सिमटने लगे।
था रोका परीक्षित ने मगर,
मन ब्याल से छला गया।
मुंख काल में चला गया.....सर्पेष्टि..
असत्य अभिमान में चूर था,
न जन-मानस से साया दूर था।
धुंधलाई चहुमुंख बढ़ने लगी,
सतियों के सत हरने लगी।
दिखता न ही कोई ठौर था,
बन एक ठिकाना था आया।
शास्त्र का पाना था लाया.....सर्पेष्टि..
1-क्रमशः......✍️
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Hindi Poem by सनातनी_जितेंद्र मन : 111810586

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