मुझे ढूँढने को आज भी
हज़ारों निगाहें गलियों में भटकती हैं,
उन्हें क्या ख़बर
मैं तो कब का उनकी दुनिया से
अपनी परछाई समेटकर निकल चुका हूँ।
वे आज भी पुकारते हैं मेरा नाम
भीड़ के शोर में,
और मैं ख़ामोशी की तह में
खुद को कहीं और दफ़न कर चुका हूँ।
मैं सब्र था
जो हर आँधी में दीया बनकर जला,
हर पत्थर को फूल समझकर सहता रहा,
पर अब…
मैं अपने ही राख में
चुपचाप सो चुका हूँ।
अब न कोई सवाल मुझे जगाता है,
न कोई जवाब बुलाता है,
मैं वो ख़्वाब हूँ
जो आँखों से उतरकर
नींद बन चुका हूँ।
अगर फिर कभी कोई पूछे
“वो कहाँ गया?”
तो हवा से कहना,
वो अब बिखर चुका है…
तारों में, नींद में,
और ख़ामोशियों में कहीं सो चुका है।
आर्यमौलिक