Duryodhana Quotes in Hindi, Gujarati, Marathi and English | Matrubharti

Duryodhana Quotes, often spoken by influential individuals or derived from literature, can spark motivation and encourage people to take action. Whether it's facing challenges or overcoming obstacles, reading or hearing a powerful Duryodhana quote can lift spirits and rekindle determination. Duryodhana Quotes distill complex ideas or experiences into short, memorable phrases. They carry timeless wisdom that often helps people navigate life situations, offering clarity and insight in just a few words.

Duryodhana bites

पांडवों के वनवास के दौरान जब दुर्योधन को चित्रसेन नामक गंधर्व ने बंदी बना लिया था और फिर अर्जुन ने चित्रसेन से युद्ध कर दुर्योधन को छुड़ा लिया था , तब दुर्योधन आत्म ग्लानि से भर गया और आमरण अनशन पर बैठ गया।

इस बात का वर्णन महाभारत में घोषयात्रा पर्व के विपक्षाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः में मिलता है। घोषणा पर्व में इस बात का जिक्र आता है कि दुर्योधन के आमरण अनशन पर बैठ जाने के बाद उसको कर्ण , दु:शासन और शकुनी आदि उसे अनेक प्रकार से समझाने की कोशिश करते हैं फिर भी दुर्योधन नहीं मानता।

दुर्योधन की ये अवस्था देखकर दानव घबरा जाते है कि अगर दुर्योधन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो उनका पक्ष इस दुनिया में कमजोर हो जायेगा। इस कारण वो दुर्योधन को पाताल लोक ले जाते है और उसको नाना प्रकार से समझाने की कोशिश करते हैं । इसका जिक्र कुछ इस प्रकार आता है। दानव दुर्योधन से कहते हैं:

प्रभो ! एक रहस्य की बात सुनिये । नरेश्वर राजन ! आपका यह आत्म हत्या सम्बन्धी विचार धर्म , अर्थ पराक्रम का नाश करने वाला तथा शत्रुओ का हर्ष बढ़ाने वाला है ।

दुर्योधन को फिर भी निराश होते देख दानव आगे बताते हैं कि दानवों ने अति श्रम करके दुर्योधन का वज्रधारी शरीर भगवान शिव की आराधना करके प्राप्त किया था।

पूर्वकायश्च पूर्वस्ते निर्मितो वज्रसंचयैः ॥ ६ ॥

राजन् ! पूर्वकाल में हमलोगों ने तपस्या द्वारा भगवान शंकर की आराधना करके आपको प्राप्त किया था । आपके शरीर का पूर्वभाग-जो नाभि से ऊपर है वज्र समूहसे बना हुआ है ।। ६ ॥

अस्त्रैरभेद्यः शस्त्रैश्चाप्यधः कायश्च तेऽनघ ।
कृतः पुष्पमयो देव्या रूपतः स्त्रीमनोहरः॥ ७ ॥

वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से विदीर्ण नहीं हो सकता। अनघ ! उसी प्रकार आपका नाभि से नीचे का शरीर पार्वती देवी ने पुष्प मय बनाया है, जो अपने रूप-सौन्दर्यसे स्त्रियों के मनको मोहने वाला है ।। ७ ॥

एवमीश्वरसंयुक्तस्तव देहो नृपोत्तम ।
देव्या च राजशार्दूल दिव्यस्त्वं हि न मानुषः ॥ ८ ॥

नृप श्रेष्ठ ! इस प्रकार आपका शरीर देवी पार्वती के साथ साक्षात भगवान महेश्वर ने संघटित किया है । अतः राज सिंह ! आप मनुष्य नहीं, दिव्य पुरुष हैं ॥ ८ ॥

इस प्रकार हम देखते हैं कि दुर्योधन के शरीर का पूर्वभाग-जो नाभि से ऊपर था , उसको भगवान शिव ने दानवों के आराधना करने पर वज्र का बनाया था और उसके शरीर के कमर से निचला भाग पार्वती देवी ने बनाया था , जो कि स्त्रियों के अनुकूल कोमल था।

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इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है।अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।

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अश्वत्थामा दुर्योधन को आगे बताता है कि शिव जी के जल्दी प्रसन्न होने की प्रवृति का भान होने पर वो उनको प्रसन्न करने को अग्रसर हुआ । परंतु प्रयास करने के लिए मात्र रात्रि भर का हीं समय बचा हुआ था। अब प्रश्न ये था कि इतने अल्प समय में शिवजी को प्रसन्न किया जाए भी तो कैसे?

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दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-28


जब अश्वत्थामा ने अपने अंतर्मन की सलाह मान बाहुबल के स्थान पर स्वविवेक के उपयोग करने का निश्चय किया, उसको  महादेव के सुलभ तुष्ट होने की प्रवृत्ति का भान तत्क्षण हीं हो गया। तो क्या अश्वत्थामा अहंकार भाव वशीभूत होकर हीं इस तथ्य के प्रति अबतक उदासीन रहा था?

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किसी व्यक्ति के चित्त में जब हीनता की भावना आती है तब उसका मन उसके द्वारा किये गए उत्तम कार्यों को याद दिलाकर उसमें वीरता की पुनर्स्थापना करने की कोशिश करता है। कुछ इसी तरह की स्थिति में कृपाचार्य पड़े हुए थे। तब उनको युद्ध स्वयं द्वारा किया गया वो पराक्रम याद आने लगा जब उन्होंने अकेले हीं पांडव महारथियों भीम , युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रुपद, शिखंडी, धृष्टद्युम आदि से भिड़कर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था। इस तरह का पराक्रम प्रदर्शित करने के बाद भी वो अस्वत्थामा की तरह दुर्योधन का विश्वास जीत नहीं पाए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था आखिर किस तरह का पराक्रम दुर्योधन के विश्वास को जीतने के लिए चाहिए था? प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" का इक्कीसवां भाग।

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दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-20
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कृपाचार्य और कृतवर्मा के जीवित रहते हुए भी ,जब उन दोनों की उपेक्षा करके दुर्योधन ने अश्वत्थामा को सेनापतित्व का भार सौंपा , तब कृतवर्मा को लगा था कि कुरु कुंवर दुर्योधन उन दोनों का अपमान कर रहे हैं। फिर कृतवर्मा मानवोचित स्वभाव का प्रदर्शन करते हुए अपने चित्त में उठते हुए द्वंद्वात्मक तरंगों को दबाने के लिए विपरीत भाव का परिलक्षण करने लगते हैं। प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" का बीसवां भाग।
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कृपाचार्य दुर्योधन को बताते है कि हमारे पास दो विकल्प थे, या तो महाकाल से डरकर भाग जाते या उनसे लड़कर मृत्युवर के अधिकारी होते। कृपाचार्य अश्वत्थामा के मामा थे और उसके दु:साहसी प्रवृत्ति को बचपन से हीं जानते थे। अश्वत्थामा द्वारा पुरुषार्थ का मार्ग चुनना उसके दु:साहसी प्रवृत्ति के अनुकूल था, जो कि उसके सेनापतित्व को चरितार्थ हीं करता था। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का उन्नीसवां भाग।

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इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् सत्रहवें भाग में दिखाया गया जब कृपाचार्य , कृतवर्मा और अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव पक्ष के योद्धाओं की रक्षा कोई और नहीं , अपितु कालों के काल साक्षात् महाकाल कर रहे हैं तब उनके मन में दुर्योधन को दिए गए अपने वचन के अपूर्ण रह जाने की आशंका होने लगी। कविता के वर्तमान भाग अर्थात अठारहवें भाग में देखिए इन विषम परिस्थितियों में भी अश्वत्थामा ने हार नहीं मानी और निरूत्साहित पड़े कृपाचार्य और कृतवर्मा को प्रोत्साहित करने का हर संभव प्रयास किया। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का अठारहवाँ भाग।