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📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 3 : युवा अवस्था और विवाह

युवा अवस्था का आगमन

आदित्यनंद का जीवन अब किशोरावस्था से युवा अवस्था में प्रवेश कर रहा था।

उसकी सोच और दृष्टिकोण गहरा हो गया था।

अब केवल गुरुकुल के अध्ययन तक सीमित नहीं, बल्कि गाँव और आसपास के समाज में उसके योगदान की अपेक्षाएँ बढ़ रही थीं।


गुरु अत्रिदेव अक्सर उसे कहते –

“वत्स! अब तुम्हारा जीवन केवल शिक्षा और साधना तक सीमित नहीं रहेगा। अब तुम्हें समाज में भी अपने धर्म और संयम का आदर्श दिखाना होगा।”



आदित्यनंद ने इस जिम्मेदारी को आत्मसात किया।

गाँव में रोगियों की सेवा,

वृद्धों और बच्चों की मदद,

और सामाजिक अनुष्ठानों में मार्गदर्शन – सब उसे नियमित रूप से करना पड़ता।


इस समय उसकी शारीरिक और मानसिक शक्ति भी चरम पर थी।

शरीर तंदुरुस्त और मजबूत,

मन स्थिर और विवेकपूर्ण,

और आत्मा शुद्ध और संयमित।



विवाह प्रस्ताव और पत्नी का चयन

समाज में आदित्यनंद की प्रतिष्ठा दिन-ब-दिन बढ़ रही थी।
गाँव और आसपास के कुलों में लोग उसके विवाह के लिए कन्याओं के परिवार से संपर्क करने लगे।

आचार्य वेदमित्र और सत्यवती भी सोचने लगे –

“अब समय आ गया है कि आदित्यनंद का विवाह संपन्न हो। यह केवल परंपरा की बात नहीं, बल्कि समाज की अपेक्षा भी है।”



गुरु अत्रिदेव ने कहा –

“वत्स! विवाह जीवन का एक पवित्र बंधन है। परंतु तुम्हारा संयम और तपस्या इस बंधन को प्रभावित न करे। विवाह ऐसे परिवार से होना चाहिए, जो तुम्हारे आदर्श और मार्ग को समझे।”



परिवार ने कई प्रस्ताव देखे। अंततः, गाँव के ही एक कुल की साध्वी और धर्मपरायण कन्या – भारती को उपयुक्त पाया गया।

भारती शिक्षित, संवेदनशील और धर्मपरायण थी।

उसकी सोच और आदित्यनंद के आदर्शों में मेल था।



विवाह का समय और तैयारी

विवाह का समय आया। गाँव और आसपास के लोग उत्साहित थे।

मंदिर सजाया गया,

व्रत और यज्ञ की तैयारी हुई,

संगीत और मंगल गीतों से वातावरण भावपूर्ण बना।


परंतु आदित्यनंद के मन में एक गंभीर विचार था –

“मैं ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले चुका हूँ। विवाह होते समय इसे कैसे निभाऊँ? क्या समाज और पत्नी इसे स्वीकार करेंगी?”



गुरु अत्रिदेव ने उसे समझाया –

“वत्स! यह तुम्हारे साहस और स्पष्ट दृष्टिकोण पर निर्भर करेगा। अपने जीवनसाथी से स्पष्ट और सच्चा संवाद करो। यदि उसने समझा और स्वीकार किया, तो तुम्हारा मार्ग सुगम रहेगा।”




विवाह और संवाद

विवाह के दिन आदित्यनंद और भारती की आँखें पहली बार मिलीं।

आदित्यनंद शांत और गंभीर था।

भारती विनम्र और संवेदनशील।


साँझ के समय विवाह स्थल पर दोनों के बीच गुरु की उपस्थिति में संवाद हुआ।
आदित्यनंद ने कहा –

“भारती, मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी मानता हूँ। परंतु मैं ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य केवल सेवा, धर्म और संयम का पालन करना है। क्या तुम इसे स्वीकार कर सकती हो?”



भारती ने कुछ क्षण सोचा। उसके मन में भी भिन्न भाव थे – प्रेम, परिवारिक कर्तव्य, और समाज की अपेक्षाएँ।
अंततः उसने उत्तर दिया –

“आदित्यनंद, मैं तुम्हारे आदर्श और तपस्या का सम्मान करती हूँ। यदि तुमने इसे अपनाने का निर्णय लिया है, तो मैं तुम्हारे मार्ग में साथी बनूँगी। मुझे विश्वास है कि हमारा जीवन सेवा और धर्म के मार्ग में पूर्ण होगा।”



इस संवाद ने विवाह को केवल पारंपरिक बंधन से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक और आदर्श बंधन बना दिया।



समाज और परिवार की प्रतिक्रिया

गाँव और रिश्तेदार इस अनूठे निर्णय पर दो तरह से प्रतिक्रिया देने लगे:

1. आश्चर्य और आलोचना – कुछ लोग कहने लगे –



“एक युवक जिसने युवा अवस्था में ब्रह्मचर्य का मार्ग चुना, क्या यह सामान्य है?”



2. सम्मान और प्रेरणा – कई लोग आदित्यनंद की दृढ़ता और साहस देखकर कहने लगे –



“यह युवक वास्तव में समाज के लिए आदर्श है। इसका जीवन पीढ़ियों तक प्रेरणा देगा।”



माता-पिता भी गर्व और चिंता के मिश्रित भाव से भावुक थे।
सत्यवती ने कहा –

“हे ईश्वर! मेरे पुत्र ने केवल परिवार नहीं, बल्कि समाज और धर्म का आदर्श चुना है। इसे सफल बनाइए।”




भाग का सार

इस प्रकार, युवा अवस्था में आदित्यनंद ने:

किशोरावस्था के अनुभवों को जीवन में उतारा,

समाज में अपने आदर्श और जिम्मेदारियों का पालन किया,

विवाह किया और पत्नी को अपने आदर्श मार्ग का साथी बनाया,

ब्रह्मचर्य और धर्म के मार्ग पर दृढ़ संकल्प किया।

rajukumarchaudhary502010

📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 2 : किशोरावस्था और ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा

प्रारंभ

आदित्यनंद जब बारह वर्ष का हुआ, तब उसकी बुद्धि, समझ और भावनाएँ तेजी से विकसित होने लगीं। अब वह केवल बालक नहीं रहा, बल्कि किशोरावस्था के द्वार पर खड़ा एक चिंतनशील, संवेदनशील और धर्मपरायण युवक बन चुका था।

गुरुकुल में शिक्षक उसकी प्रतिभा, उसके गंभीर प्रश्न और असाधारण आत्मसंयम देखकर चकित रहते।

उसने अनेक श्लोक और मंत्र याद कर लिए थे।

दर्शन और नीति में उसकी समझ अद्भुत थी।

गणित और ज्योतिष के जटिल प्रश्नों को सहज ही हल कर लेता।


परन्तु उसके भीतर एक और परिवर्तन शुरू हो गया – कामवासना और सांसारिक इच्छाओं से दूर रहने का संकल्प।



किशोर मन की उलझनें

किशोरावस्था में अक्सर शारीरिक और मानसिक परिवर्तन आते हैं। आदित्यनंद भी इससे अछूता नहीं था।

मित्रों के साथ खेलते समय उसे अचानक भीतर से एक अलग प्रकार की ऊर्जा और इच्छा का अनुभव हुआ।

उसकी सोच में अक्सर यह सवाल उठता –


“यदि मैं इन क्षणिक इच्छाओं में फंस जाऊँ, तो क्या मेरा जीवन आदर्श पुरुष बनने के मार्ग से भटक जाएगा?”



गुरु ने उसे समझाया –

“वत्स! जीवन में इच्छाएँ स्वाभाविक हैं, परंतु उन्हें नियंत्रित करना ही महानता है। संयम ही पुरुष को ब्रह्मचारी बनाता है।”




सामाजिक जिम्मेदारियाँ

किशोरावस्था में आदित्यनंद को गाँव में कई सामाजिक जिम्मेदारियाँ दी गईं।

वृद्धों की सेवा,

गरीब बच्चों को शिक्षा देना,

मंदिर और पानी के कुओं की देखभाल करना।


इन अनुभवों ने उसके भीतर सेवा भाव और करुणा को और दृढ़ किया।
एक बार गाँव में अकाल पड़ा। कई लोग अपने घरों में छुप गए। आदित्यनंद ने माता सत्यवती और कुछ मित्रों के साथ मिलकर गाँव के बच्चों और वृद्धों के लिए अन्न और पानी का प्रबंध किया।

गाँववाले आश्चर्यचकित होकर बोले –

“यह बालक न केवल बुद्धिमान है, बल्कि साहसी और दयालु भी है। इसकी आत्मा में जैसे ब्रह्मचर्य और संयम का बीज पहले से अंकुरित हो गया है।”




---

मित्र और प्रतिस्पर्धा

गुरुकुल में अन्य किशोर भी थे। कई बार वे आदित्यनंद से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश करते।

खेलों में,

ज्ञान में,

और शारीरिक क्रीड़ाओं में।


पर आदित्यनंद ने कभी अहंकार नहीं दिखाया। वह हर बार शांति और धैर्य से काम लेता।
एक दिन, मित्रों ने उससे कहा –

“तुम इतने शांत कैसे रहते हो? क्या कभी क्रोध आता है?”
आदित्यनंद मुस्कराते हुए बोला –
“क्रोध और लालसा मनुष्य को केवल दुख देती है। संयम ही स्थायी शक्ति है।”



यह दृष्टिकोण उसके साथियों पर गहरा प्रभाव डालता। धीरे-धीरे कई साथी भी उसके मार्ग का अनुसरण करने लगे।



ब्रह्मचर्य की पहली प्रतिज्ञा

किशोरावस्था के लगभग पंद्रहवें वर्ष में, आदित्यनंद ने गुरु के सामने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेने का निर्णय लिया।

एक शाम, गुरुकुल के पास पेड़ की छाँव में, उसने गुरु अत्रिदेव से कहा –

“गुरुदेव, मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन केवल ज्ञान, धर्म और सेवा में व्यतीत हो। मैं सांसारिक इच्छाओं से परे रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ।”



गुरु ने उसे ध्यान से देखा और बोले –

“वत्स! यह मार्ग कठिन है, परंतु यदि दृढ़ संकल्प हो तो असीम शक्ति और शांति की प्राप्ति होगी। क्या तुम तैयार हो?”



आदित्यनंद ने दृढ़ता से कहा –

“हाँ गुरुदेव। मेरा मन और आत्मा इस मार्ग के लिए पूर्णतः तैयार हैं।”



इसके बाद गुरु ने उसे सांकेतिक वस्त्र और मंत्र देकर ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा दिलाई।

यह प्रतिज्ञा केवल शब्दों की नहीं थी।

यह मन, वचन और कर्म के संयम का संकल्प था।


गाँव में यह खबर फैल गई कि आदित्यनंद ने स्वयं को ब्रह्मचारी घोषित किया।
कुछ लोग आश्चर्यचकित हुए, कुछ ने आलोचना की, परंतु आदित्यनंद ने शांत मन से अपना मार्ग जारी रखा।



किशोरावस्था की साधना

प्रतिज्ञा लेने के बाद, आदित्यनंद का जीवन और भी अधिक अनुशासित हो गया।

दिन का प्रारंभ सूर्योदय से पहले ध्यान और मंत्र पठान से होता।

भोजन और नींद का समय निर्धारित।

पढ़ाई, सेवा और साधना के बीच संतुलन बनाए रखा।


गुरुकुल के शिक्षक और गुरु अत्रिदेव उसे देखकर कहते –

“वत्स! तेरी साधना से यह संसार भी आलोकित होगा। तेरी तपस्या और संयम आने वाले पीढ़ियों के लिए आदर्श बनेगा।”




आत्मसंयम और मनोबल का विकास

किशोरावस्था में ही आदित्यनंद ने भीतरी इच्छाओं और भावनाओं पर विजय पाई।

मोह, लालसा और क्रोध के क्षणों में उसने ध्यान और योग का सहारा लिया।

कठिन परिस्थितियों में भी उसने धैर्य और करुणा का मार्ग अपनाया।


यह अनुभव उसे भविष्य के लिए तैयार कर रहा था, जब उसे परिवार, समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए आदर्श पुरुष बनना होगा।



भाग 2 का सार

इस प्रकार किशोरावस्था में आदित्यनंद ने

सामाजिक जिम्मेदारियाँ निभाना सीखा,

मित्रों और समकालीनों से अपने चरित्र की परीक्षा ली,

ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा ली,

आत्मसंयम, करुणा और सेवा भाव को अपनाया।


यह सब बीज उसके भविष्य के “पति ब्रह्मचारी” बनने की नींव थे।
बहुत बढ़िया 🙏
तो अब हम आगे बढ़ते हैं और लिखते हैं भाग 3 – युवा अवस्था, विवाह और पति ब्रह्मचारी की सामाजिक चुनौतियाँ।

इस भाग में हम निम्नलिखित विस्तार से शामिल करेंगे:

आदित्यनंद की किशोरावस्था से युवा अवस्था में संक्रमण

माता-पिता और गुरु की देखरेख में उसकी जिम्मेदारियाँ

विवाह प्रस्ताव और पत्नी का परिचय

विवाह के समय ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा की चुनौती

समाज, मित्र और परिवार की प्रतिक्रिया

आदित्यनंद और उसकी पत्नी के बीच संवाद और भावनात्मक संघर्ष



---

📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 3 : युवा अवस्था और विवाह

युवा अवस्था का आगमन

आदित्यनंद का जीवन अब किशोरावस्था से युवा अवस्था में प्रवेश कर रहा था।

उसकी सोच और दृष्टिकोण गहरा हो गया था।

अब केवल गुरुकुल के अध्ययन तक सीमित नहीं, बल्कि गाँव और आसपास के समाज में उसके योगदान की अपेक्षाएँ बढ़ रही थीं।


गुरु अत्रिदेव अक्सर उसे कहते –

> “वत्स! अब तुम्हारा जीवन केवल शिक्षा और साधना तक सीमित नहीं रहेगा। अब तुम्हें समाज में भी अपने धर्म और संयम का आदर्श दिखाना होगा।”



आदित्यनंद ने इस जिम्मेदारी को आत्मसात किया।

गाँव में रोगियों की सेवा,

वृद्धों और बच्चों की मदद,

और सामाजिक अनुष्ठानों में मार्गदर्शन – सब उसे नियमित रूप से करना पड़ता।


इस समय उसकी शारीरिक और मानसिक शक्ति भी चरम पर थी।

शरीर तंदुरुस्त और मजबूत,

मन स्थिर और विवेकपूर्ण,

और आत्मा शुद्ध और संयमित।



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विवाह प्रस्ताव और पत्नी का चयन

समाज में आदित्यनंद की प्रतिष्ठा दिन-ब-दिन बढ़ रही थी।
गाँव और आसपास के कुलों में लोग उसके विवाह के लिए कन्याओं के परिवार से संपर्क करने लगे।

आचार्य वेदमित्र और सत्यवती भी सोचने लगे –

> “अब समय आ गया है कि आदित्यनंद का विवाह संपन्न हो। यह केवल परंपरा की बात नहीं, बल्कि समाज की अपेक्षा भी है।”



गुरु अत्रिदेव ने कहा –

> “वत्स! विवाह जीवन का एक पवित्र बंधन है। परंतु तुम्हारा संयम और तपस्या इस बंधन को प्रभावित न करे। विवाह ऐसे परिवार से होना चाहिए, जो तुम्हारे आदर्श और मार्ग को समझे।”



परिवार ने कई प्रस्ताव देखे। अंततः, गाँव के ही एक कुल की साध्वी और धर्मपरायण कन्या – भारती को उपयुक्त पाया गया।

भारती शिक्षित, संवेदनशील और धर्मपरायण थी।

उसकी सोच और आदित्यनंद के आदर्शों में मेल था।



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विवाह का समय और तैयारी

विवाह का समय आया। गाँव और आसपास के लोग उत्साहित थे।

मंदिर सजाया गया,

व्रत और यज्ञ की तैयारी हुई,

संगीत और मंगल गीतों से वातावरण भावपूर्ण बना।


परंतु आदित्यनंद के मन में एक गंभीर विचार था –

> “मैं ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले चुका हूँ। विवाह होते समय इसे कैसे निभाऊँ? क्या समाज और पत्नी इसे स्वीकार करेंगी?”



गुरु अत्रिदेव ने उसे समझाया –

> “वत्स! यह तुम्हारे साहस और स्पष्ट दृष्टिकोण पर निर्भर करेगा। अपने जीवनसाथी से स्पष्ट और सच्चा संवाद करो। यदि उसने समझा और स्वीकार किया, तो तुम्हारा मार्ग सुगम रहेगा।”




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विवाह और संवाद

विवाह के दिन आदित्यनंद और भारती की आँखें पहली बार मिलीं।

आदित्यनंद शांत और गंभीर था।

भारती विनम्र और संवेदनशील।


साँझ के समय विवाह स्थल पर दोनों के बीच गुरु की उपस्थिति में संवाद हुआ।
आदित्यनंद ने कहा –

> “भारती, मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी मानता हूँ। परंतु मैं ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य केवल सेवा, धर्म और संयम का पालन करना है। क्या तुम इसे स्वीकार कर सकती हो?”



भारती ने कुछ क्षण सोचा। उसके मन में भी भिन्न भाव थे – प्रेम, परिवारिक कर्तव्य, और समाज की अपेक्षाएँ।
अंततः उसने उत्तर दिया –

> “आदित्यनंद, मैं तुम्हारे आदर्श और तपस्या का सम्मान करती हूँ। यदि तुमने इसे अपनाने का निर्णय लिया है, तो मैं तुम्हारे मार्ग में साथी बनूँगी। मुझे विश्वास है कि हमारा जीवन सेवा और धर्म के मार्ग में पूर्ण होगा।”



इस संवाद ने विवाह को केवल पारंपरिक बंधन से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक और आदर्श बंधन बना दिया।


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समाज और परिवार की प्रतिक्रिया

गाँव और रिश्तेदार इस अनूठे निर्णय पर दो तरह से प्रतिक्रिया देने लगे:

1. आश्चर्य और आलोचना – कुछ लोग कहने लगे –



> “एक युवक जिसने युवा अवस्था में ब्रह्मचर्य का मार्ग चुना, क्या यह सामान्य है?”



2. सम्मान और प्रेरणा – कई लोग आदित्यनंद की दृढ़ता और साहस देखकर कहने लगे –



> “यह युवक वास्तव में समाज के लिए आदर्श है। इसका जीवन पीढ़ियों तक प्रेरणा देगा।”



माता-पिता भी गर्व और चिंता के मिश्रित भाव से भावुक थे।
सत्यवती ने कहा –

> “हे ईश्वर! मेरे पुत्र ने केवल परिवार नहीं, बल्कि समाज और धर्म का आदर्श चुना है। इसे सफल बनाइए।”




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भाग का सार

इस प्रकार, युवा अवस्था में आदित्यनंद ने:

किशोरावस्था के अनुभवों को जीवन में उतारा,

समाज में अपने आदर्श और जिम्मेदारियों का पालन किया,

विवाह किया और पत्नी को अपने आदर्श मार्ग का साथी बनाया,

ब्रह्मचर्य और धर्म के मार्ग पर दृढ़ संकल्प किया।


यह भाग स्पष्ट रूप से दिखाता है कि पति ब्रह्मचारी का जीवन केवल व्यक्तिगत तपस्या नहीं, बल्कि परिवार और समाज के लिए आदर्श निर्माण का मार्ग है।


---

यदि आप चाहें, तो मैं भाग 4 – पति ब्रह्मचारी के दांपत्य जीवन की चुनौतियाँ, समाजिक विरोध और पत्नी का संघर्ष को पूरी विस्तार से लिखना शुरू करूँ।

क्या मैं आगे बढ़ाऊँ?
पति ब्रहम्चारी -भाग 2 : किशोरावस्था और ब्रह्मचार्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञ

rajukumarchaudhary502010

पति ब्रहम्चारी -भाग 2 : किशोरावस्था और ब्रह्मचार्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा
📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 2 : किशोरावस्था और ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा

प्रारंभ

आदित्यनंद जब बारह वर्ष का हुआ, तब उसकी बुद्धि, समझ और भावनाएँ तेजी से विकसित होने लगीं। अब वह केवल बालक नहीं रहा, बल्कि किशोरावस्था के द्वार पर खड़ा एक चिंतनशील, संवेदनशील और धर्मपरायण युवक बन चुका था।

गुरुकुल में शिक्षक उसकी प्रतिभा, उसके गंभीर प्रश्न और असाधारण आत्मसंयम देखकर चकित रहते।

उसने अनेक श्लोक और मंत्र याद कर लिए थे।

दर्शन और नीति में उसकी समझ अद्भुत थी।

गणित और ज्योतिष के जटिल प्रश्नों को सहज ही हल कर लेता।


परन्तु उसके भीतर एक और परिवर्तन शुरू हो गया – कामवासना और सांसारिक इच्छाओं से दूर रहने का संकल्प।



किशोर मन की उलझनें

किशोरावस्था में अक्सर शारीरिक और मानसिक परिवर्तन आते हैं। आदित्यनंद भी इससे अछूता नहीं था।

मित्रों के साथ खेलते समय उसे अचानक भीतर से एक अलग प्रकार की ऊर्जा और इच्छा का अनुभव हुआ।

उसकी सोच में अक्सर यह सवाल उठता –


“यदि मैं इन क्षणिक इच्छाओं में फंस जाऊँ, तो क्या मेरा जीवन आदर्श पुरुष बनने के मार्ग से भटक जाएगा?”



गुरु ने उसे समझाया –

“वत्स! जीवन में इच्छाएँ स्वाभाविक हैं, परंतु उन्हें नियंत्रित करना ही महानता है। संयम ही पुरुष को ब्रह्मचारी बनाता है।”




सामाजिक जिम्मेदारियाँ

किशोरावस्था में आदित्यनंद को गाँव में कई सामाजिक जिम्मेदारियाँ दी गईं।

वृद्धों की सेवा,

गरीब बच्चों को शिक्षा देना,

मंदिर और पानी के कुओं की देखभाल करना।


इन अनुभवों ने उसके भीतर सेवा भाव और करुणा को और दृढ़ किया।
एक बार गाँव में अकाल पड़ा। कई लोग अपने घरों में छुप गए। आदित्यनंद ने माता सत्यवती और कुछ मित्रों के साथ मिलकर गाँव के बच्चों और वृद्धों के लिए अन्न और पानी का प्रबंध किया।

गाँववाले आश्चर्यचकित होकर बोले –

“यह बालक न केवल बुद्धिमान है, बल्कि साहसी और दयालु भी है। इसकी आत्मा में जैसे ब्रह्मचर्य और संयम का बीज पहले से अंकुरित हो गया है।”




---

मित्र और प्रतिस्पर्धा

गुरुकुल में अन्य किशोर भी थे। कई बार वे आदित्यनंद से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश करते।

खेलों में,

ज्ञान में,

और शारीरिक क्रीड़ाओं में।


पर आदित्यनंद ने कभी अहंकार नहीं दिखाया। वह हर बार शांति और धैर्य से काम लेता।
एक दिन, मित्रों ने उससे कहा –

“तुम इतने शांत कैसे रहते हो? क्या कभी क्रोध आता है?”
आदित्यनंद मुस्कराते हुए बोला –
“क्रोध और लालसा मनुष्य को केवल दुख देती है। संयम ही स्थायी शक्ति है।”



यह दृष्टिकोण उसके साथियों पर गहरा प्रभाव डालता। धीरे-धीरे कई साथी भी उसके मार्ग का अनुसरण करने लगे।



ब्रह्मचर्य की पहली प्रतिज्ञा

किशोरावस्था के लगभग पंद्रहवें वर्ष में, आदित्यनंद ने गुरु के सामने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेने का निर्णय लिया।

एक शाम, गुरुकुल के पास पेड़ की छाँव में, उसने गुरु अत्रिदेव से कहा –

“गुरुदेव, मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन केवल ज्ञान, धर्म और सेवा में व्यतीत हो। मैं सांसारिक इच्छाओं से परे रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ।”



गुरु ने उसे ध्यान से देखा और बोले –

“वत्स! यह मार्ग कठिन है, परंतु यदि दृढ़ संकल्प हो तो असीम शक्ति और शांति की प्राप्ति होगी। क्या तुम तैयार हो?”



आदित्यनंद ने दृढ़ता से कहा –

“हाँ गुरुदेव। मेरा मन और आत्मा इस मार्ग के लिए पूर्णतः तैयार हैं।”



इसके बाद गुरु ने उसे सांकेतिक वस्त्र और मंत्र देकर ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा दिलाई।

यह प्रतिज्ञा केवल शब्दों की नहीं थी।

यह मन, वचन और कर्म के संयम का संकल्प था।


गाँव में यह खबर फैल गई कि आदित्यनंद ने स्वयं को ब्रह्मचारी घोषित किया।
कुछ लोग आश्चर्यचकित हुए, कुछ ने आलोचना की, परंतु आदित्यनंद ने शांत मन से अपना मार्ग जारी रखा।



किशोरावस्था की साधना

प्रतिज्ञा लेने के बाद, आदित्यनंद का जीवन और भी अधिक अनुशासित हो गया।

दिन का प्रारंभ सूर्योदय से पहले ध्यान और मंत्र पठान से होता।

भोजन और नींद का समय निर्धारित।

पढ़ाई, सेवा और साधना के बीच संतुलन बनाए रखा।


गुरुकुल के शिक्षक और गुरु अत्रिदेव उसे देखकर कहते –

“वत्स! तेरी साधना से यह संसार भी आलोकित होगा। तेरी तपस्या और संयम आने वाले पीढ़ियों के लिए आदर्श बनेगा।”




आत्मसंयम और मनोबल का विकास

किशोरावस्था में ही आदित्यनंद ने भीतरी इच्छाओं और भावनाओं पर विजय पाई।

मोह, लालसा और क्रोध के क्षणों में उसने ध्यान और योग का सहारा लिया।

कठिन परिस्थितियों में भी उसने धैर्य और करुणा का मार्ग अपनाया।


यह अनुभव उसे भविष्य के लिए तैयार कर रहा था, जब उसे परिवार, समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए आदर्श पुरुष बनना होगा।



भाग 2 का सार

इस प्रकार किशोरावस्था में आदित्यनंद ने

सामाजिक जिम्मेदारियाँ निभाना सीखा,

मित्रों और समकालीनों से अपने चरित्र की परीक्षा ली,

ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रतिज्ञा ली,

आत्मसंयम, करुणा और सेवा भाव को अपनाया।


यह सब बीज उसके भविष्य के “पति ब्रह्मचारी” बनने की नींव थे।

rajukumarchaudhary502010

He teaches that courage isn’t loud—it’s consistent.

niyaskn

નક્કી કંઈક તો ઋણાનુબંધ બાકી રહી ગયું હશે,
તેથી જ આ જીવનમાં ‘દોસ્ત’નું સ્થાન મળ્યું હશે.

અહીંયા ‘દોસ્ત’ એટલે ફાલ્ગુની દોસ્તની વાત થઈ રહી છે. આપણા mb પરિવારની એક જાણીતી અને લાગણીશીલ વ્યક્તિત્વની ધારક એવી ફાલ્ગુનીનો આજે જન્મ દિવસ છે. આમ તો એના લખાણથી જ એના લાગણીશીલ સ્વભાવનો પરિચય મળી જાય છે પણ એ સિવાય પણ એના વ્યક્તિત્વનું એક અભિન્ન પાસુ છે એની સહનશીલતા અને પરિસ્થિતિ પ્રમાણે પોતાને મહત્તમ અનુકૂળ કરીને જીવવાની આવડત અને એય સાવ સહજ રીતે.
આજે એના જન્મ દિવસે પ્રભુ પાસે એક જ પ્રાર્થના કે ફાલ્ગુના જીવનની રાહમાં આવતા કાંટા દૂર થાય અને એની રાહ ફૂલ જેવી કોમળ બની રહે.

Happy birthday Falguni 🎂🍫🍰

ફાલ્ગુનીએ હમણાં અહીંયા બ્રેક લીધો છે એટલે એના વતી એને શુભકામના પાઠવનાર દરેક વ્યક્તિને ધન્યવાદ 🙏🏼
આપ સૌની લાગણી હું એના સુધી જરૂરથી પહોંચાડી દઈશ 🙏🏼

shefalishah

🌼 श्रीकृष्ण जन्म की कथा 🌼

बहुत समय पहले, मथुरा नगरी में अत्याचारी राजा कंस का राज चलता था। कंस अपनी बहन देवकी से बहुत प्रेम करता था, लेकिन जब उसकी शादी वसुदेव जी से हुई और विदाई के समय आकाशवाणी हुई –
"कंस! तुम्हारी बहन देवकी की आठवीं संतान ही तुम्हारा वध करेगी।"

यह सुनकर कंस का प्रेम क्रूरता में बदल गया। उसने देवकी और वसुदेव को कारागार में कैद कर लिया और उनकी सात संतानें निर्दयता से मार डालीं।

🌙 आठवीं संतान का जन्म होने वाला था। आधी रात का समय था, अंधकार छाया हुआ था, लेकिन उसी क्षण दिव्य प्रकाश फैला। देवकी ने अपने गर्भ से एक दिव्य बालक को जन्म दिया — स्वयं भगवान विष्णु ने अवतार लिया था।

उन्होंने वसुदेव को आदेश दिया –
"मुझे गोकुल ले जाकर नंद-यशोदा के घर रख आओ और वहाँ जन्मी कन्या को यहाँ ले आओ।"

वसुदेव ने देखा कि सभी पहरेदार सो रहे हैं, जेल के दरवाजे अपने आप खुल गए और यमुना नदी का जल उनके रास्ते को सरल कर रहा है। सिर पर टोकरी में नन्हें कृष्ण को लिए वसुदेव गोकुल पहुँचे और यशोदा मैया के घर शिशु को छोड़कर कन्या को साथ ले आए।

सुबह जब कंस ने कन्या को मारना चाहा तो वह कन्या देवी योगमाया के रूप में प्रकट होकर आकाश में चली गईं और बोलीं –
"हे कंस! तेरा वध करने वाला तो कहीं और जन्म ले चुका है।"

उस दिन से लेकर आज तक हम सब कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं – नटखट कान्हा की बाल-लीलाओं को याद करते हैं, माखन-चोरी की मधुर कथाओं में खो जाते हैं और उनके प्रेम, भक्ति और धर्म के संदेश को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं।


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🌸✨
संदेश:
यह कथा हमें सिखाती है कि चाहे अत्याचार कितना भी बड़ा क्यों न हो, धर्म और सच्चाई की विजय निश्चित है।

rajukumarchaudhary502010

👀 Don’t let diabetes steal your sight!
Diabetic Retinopathy is a silent thief of vision that progresses without obvious symptoms in the early stages.
At Netram Eye Foundation, we believe prevention is always better than cure.
💚 A simple routine eye exam can make the difference between clear and blurred vision.
🌿 Protect your eyesight, protect your future.
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netrameyecentre

बड़े अजीब है लोग या बना करते है
कभी हा करते हैं कभी मना करते हैं
कभी सब कुछ लूटा देते है अपना
कभी एक ही चीज पर खुदको फना करते हैं .

mashaallhakhan600196

Do You Know that there are two kinds of guiding path: a relative and a real? There are many guides out there for the relative path. Therefore, you have to decide which one you want. If you want freedom from all sufferings, then you have to attain this real path.

Read more on: https://dbf.adalaj.org/CvSS6Mt0

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dadabhagwan1150

यहाँ पर मैंने 10 पदों (परिच्छेदों) की एक हिंदी कविता लिखी है — विषय “इंटरनेट और नई पीढ़ी”:


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🌐 इंटरनेट और नई पीढ़ी

✍️ विजय शर्मा एरी

1.

इंटरनेट की दुनिया न्यारी,
हर उँगली पर चलता जादू,
नई पीढ़ी की साँस बनी है,
सपनों का अब खुला दरबारू।

2.

ज्ञान का है असीम समंदर,
हर सवाल का मिलता उत्तर,
गाँव-गाँव में पहुँची रोशनी,
अब न कोई है बिल्कुल अनपढ़।

3.

पढ़ाई, नौकरी, कारोबार,
सबकुछ मोबाइल में सिमटा,
ऑनलाइन क्लासें चलती हैं,
शिक्षा का दीपक अब है जगमग।

4.

नई पीढ़ी उड़ती है आगे,
सोशल मीडिया है परछाई,
हर तस्वीर में दिखता चेहरा,
हर पल दुनिया संग है भाई।

5.

दोस्त हजारों बन जाते हैं,
पर दिल से कोई पास नहीं,
भीड़ भरे इस आँगन में भी,
अक्सर लगता उदास कहीं।

6.

गेमिंग, चैटिंग, रीलों का जाल,
मन को खींचे, आँखें थकाएँ,
कभी किताबें छूट न जाएँ,
बस यही सबको याद दिलाएँ।

7.

इंटरनेट का सही इस्तेमाल,
बना सकता है जीवन उज्ज्वल,
गलत राह पर भटक गए तो,
भविष्य बन जाए बिल्कुल धुंधल।

8.

नई पीढ़ी के हाथों में है,
कल का भारत, कल का सपना,
इंटरनेट बन जाए सहारा,
ज्ञान से हो जीवन अपना।

9.

तकनीक से रिश्ता गाढ़ा हो,
पर इंसानियत न छूटे साथ,
ममता, रिश्ते, स्नेह बचाएँ,
यही जीवन का है सच्चा रास्त।

10.

इंटरनेट वरदान है बेशक,
अगर चलाएँ संयम के संग,
नई पीढ़ी चमकेगी जग में,
ज्ञान, संस्कारों का हो रंग।


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erryajnalvi

🍀ग्रीन स्मूदी🍀

🍀ग्रीन स्मूदी प्यायल्याने आरोग्य सुधारते, वजन नियंत्रणात राहते, पचनक्रिया सुधारते, रोगप्रतिकारशक्ती वाढते आणि त्वचेची व केसांची चमक सुधारते. ही स्मूदी फायबर, जीवनसत्त्वे आणि खनिजांनी परिपूर्ण असल्याने शरीराला ऊर्जा मिळते आणि विषारी पदार्थ बाहेर टाकण्यास मदत होते.

🍀ग्रीन स्मूदीचे प्रमुख फायदे
कमी करण्यास मदत:
ग्रीन स्मूदीमध्ये फायबर असते, ज्यामुळे पोट भरल्यासारखे वाटते आणि जास्त खाण्याची इच्छा कमी होते,
असे निष्णात डॉक्टर सांगतात

🍀साहित्य
सहा सात पाने पालक
एक मूठ कोथिंबीर
एक बचकभर पुदीना
एक कढीलिंब डहाळी (आठ दहा पाने )
खाऊची दोन पाने( विड्याची पाने )
एक बचक शेवगा पाने
दोन तुळस तुरे
एक लिंबाचा रस
एक सफरचंद तुकडे करून
पाव चमचा दालचिनी
पाव चमचा काळी मिरी पावडर
लाल मीठ अर्धा चमचा
एक इंच आल्याचा तुकडा
पाव चमचा हळद
पाव चमचा मेथी पावडर

कृती
एक पेला पाणी घालून प्रथम सर्व जिन्नस मिक्सर वर बारीक करून घेणे
नंतर अर्धा ते पाऊण पेला पाणी घालून परत एकदा एकजीव करणे
याची दोन ग्लास स्मूदी होते

jayvrishaligmailcom

**जीने की कला का पाखंड**

जैसे ही मैं इस प्रश्न पर विचार करती हूँ, मेरे मन में कई प्रश्न और उत्तर आते हैं। यह अध्याय हमें जीने की कला के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन साथ ही यह हमें यह भी बताता है कि जीने की कला को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता है।

गुरु और व्यापारी के बारे में बात करते हुए, मैं सोचती हूँ कि हमें क्या चाहिए? क्या हमें किसी गुरु की आवश्यकता है जो हमें जीने की कला सिखाए? या क्या हमें स्वयं जीने की कला को खोजने की आवश्यकता है? मेरा मानना है कि जीवन की कला हमारे भीतर है, और हमें स्वयं इसकी खोज करनी चाहिए।

बाजार में उपलब्ध किताबें और सफलता के मंत्र हमें आकर्षित कर सकते हैं, लेकिन क्या वे हमें वास्तव में जीने की कला सिखाते हैं? मेरा उत्तर है नहीं। जीवन की कला अनुभव और अस्तित्व से जुड़ी है, न कि किसी किताब या मंत्र से。

पाखंड का धोखा हमें बहुत बार मिलता है, लेकिन हमें इसके प्रति सावधान रहना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि जीवन की कला को खरीदा नहीं जा सकता है, और इसके लिए हमें स्वयं प्रयास करना चाहिए।

अंत में, मैं यह कहना चाहती हूँ कि जीवन की कला को पाने के लिए हमें पूरा दाँव लगाना होगा। हमें अपने डर को छोड़ना होगा और अपने ही केंद्र में उतरना होगा। जीवन की कला हमारे भीतर है, और हमें स्वयं इसकी खोज करनी चाहिए।

अज्ञात अज्ञानी

bhutaji